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रंगके सवालपर फिर लॉर्ड मिलनर

यह एक दिलचस्प बात है कि नेटालके ब्रिटिश भारतीय अगर चाहें तो केप अथवा डेलागोआ-बे जा सकते हैं और अनुमति पत्र (परमिट) मिलनेकी बारी आनेपर प्लेग-सम्बन्धी रुकावटें होने पर भी वे इस उपनिवेशमें वापस लिए जा सकते हैं। इससे प्रकट होता है कि ट्रान्सवालकी ये रुकावटें कितनी बे-सिर पैरकी हैं। प्रायः यह कहा जाता है कि दूसरी कौमोंकी अपेक्षा भारतीयोंमें प्लेगसे अधिक मौतें हुई हैं। आंकड़ोंसे निकाला हुआ नतीजा भूल-भरा और गलत है, यह डर्बनमें ब्रिटिश भारतीयोंकी एक सभामें उसके अध्यक्षने अभी-अभी सिद्ध कर दिया है। उन्होंने बताया है कि इनमें से अधिकतर मौतें गिरमिटिया मजदूरोंमें हुई हैं, जो कि -- साफ बात है -- बहुत गरीब हैं, और जिनके आरोग्यकी जिम्मेदारी उनके मालिकोंपर है। ऐसी हालतमें अगर उनकी मृत्यु-संख्या अधिक है तो इसमें बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है । यह भी देखा गया है कि खुशहाल भारतीय इस रोगकी छूतसे उतने ही मुक्त रहे हैं जितने अन्य जातियोंके लोग। इसके अलावा एक और बात भी है। प्लेग कभी मैरित्सबर्गके आगे नहीं बढ़ा है। तब उत्तरी हिस्सोंमें रहनेवाले ब्रिटिश भारतीयोंके मार्गमें बाधाएँ डालनेका कारण क्या है ? और जब प्रकट है कि खुश्क आबहवा और ऊँचाईपर बसे प्रदेशोंमें प्लेगके कीटाणु नहीं पनप सकते, तब ट्रान्सवालको प्लेगका भय क्यों हो? हम आशा करते हैं कि ट्रान्सवालकी सरकार इस असमर्थनीय गलत आग्रहसे पीछे हटनेका कोई मार्ग निकालेगी ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २३-७-१९०३

२८७. रंगके सवालपर फिर लॉर्ड मिलनर

परमश्रेष्ठको पिछले हफ्ते केपकी रंगदार जातियों द्वारा एक मानपत्र दिया गया। इसके जवाबमें श्रीमानने जो शब्द कहे उन्हें अन्यत्र दिया जा रहा है । यद्यपि वे शब्द उन लोगोंके लिए कहे गये थे, हमारा खयाल है वे ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिपर भी लागू होते हैं। ट्रान्सवालकी रंगदार जातियोंकी स्थितिके प्रति लॉर्ड मिलनरके उदार विचारों और सहानुभूतिके विषयमें कोई सन्देह नहीं है; किन्तु श्रीमानके शब्दोंसे तो यह स्पष्ट है कि वे नगरपालिकाओंके चुनाव-सम्बन्धी अध्यादेशको नामंजूर नहीं करेंगे, जिसमें ब्रिटिश भारतीयों और दूसरोंसे मताधिकार छीन लिया गया है । कुछ भी हो, उनके भाषणका वह भाग सबसे अधिक आपत्तिजनक है, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश प्रजाके सामान्य अधिकारोंके बारेमें कहा है। उनके शब्द ये हैं :

मताधिकारका अभाव और इस बीच उनके जल्दी मिलनेकी आशा न होनेपर भी ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जिनके लिए रंगदार जातियोंको आभार मानना चाहिए कि वे ब्रिटिश झंडेके नीचे हैं। वे आजाद हैं, उनके उद्योग-धन्धोंकी रक्षा की जाती है तथा वे अपनी जायदादका उपभोग कर सकते हैं। इन बातोंमें उनके और यहाँके समाजके दूसरे भागोंमें कोई भेदभाव नहीं है। नगरपालिकाके मताधिकारके अलावा में नहीं जानता कि उनको और क्या नहीं दिया गया है।

अब, अगर ये शब्द ब्रिटिश भारतवासियोंको भी ध्यानमें रख कर कहे गये हैं तो वे भ्रमोत्पादक हैं। क्योंकि यहाँके शेष समाजको जो नागरिक और जायदाद-सम्बन्धी अधिकार हैं वे भारतीयोंको नहीं हैं। और अगर इन मामूली अधिकारोंको श्रीमान विशेष अधिकार कहकर बहुत