पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/४४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०६
सम्पूर्ण गांधी वाङमय

मूल्यवान बताना चाहते हैं, तो -- श्रीमान क्षमा करें -- यह ज्यादती है । तथापि उन्होंने अपने श्रोताओंके प्रति जो सहानुभूति प्रकट की और उन्हें जो सलाह दी, हमें उससे विशेष मतलब है । यह सलाह तो ब्रिटिश भारतीयोंके भी बहुत ध्यान देने योग्य है । हम श्रीमानके भाषणके अन्तिम शब्द उद्धृत करते हैं :

मैं तो आपसे कहूँगा कि आपका भविष्य महान है और वह बहुत अधिक अंशोंमें आपके अपने हाथोंमें है। एक ऐसे देशको आपने अपना घर बनाया है, जिसके पास अटूट साधन-सम्पत्ति है। आपको इसकी समृद्धिका हिस्सेदार होनेका हक है। जो विशेषाधिकार आपको पहले ही मिल चुके हैं उनका पूरा-पूरा लाभ उठाना आपका कर्त्तव्य है । इसीमें आपका हित है। नाहक मिजाज करनेमें कोई फायदा नहीं है। हाँ, जो आपको नहीं मिला है, उसके लिए अवश्य प्रयत्न करते रहिए। आखिरकार जिसमें ऊपर उठनेकी शक्ति है उसके लिए यह स्थिति खराब नहीं है। यह एक बात बिलकुल साफ है कि आज जो अवसर आपको मिला है उसका पूरा-पूरा लाभ उठाकर ही यहाँ अपने विरुद्ध फैले हुए दुर्भावको दूर करके आप अपने आपको बहुसंख्यक जनताके आदरका पात्र बना सकेंगे। आज भी आप अपने आपको ऊपर उठानेका जो महान् प्रयास कर रहे हैं उसमें इस देशके अच्छे-अच्छे यूरोपीय नागरिकोंकी सहानुभूति आपके साथ है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २३-७-१९०३

२८८. ट्रान्सवालके 'बाजार'

ट्रान्सवालके अनुमान-पत्रमें एशियाई मामलोंके लिए रखी गई १०,००० पौंडकी रकमपर सर जॉर्ज फ़ेरारने आपत्ति की तो उपनिवेश-सचिवने जो उत्तर दिया वह दूसरे स्तम्भमें हम उद्धृत करते हैं। उससे बिलकुल साफ है कि सरकारका ब्रिटिश भारतीयोंको पृथक् बस्तियोंमें निर्वासित करनेका इरादा पक्का है। सर फिट्ज़ पैट्रिक और सर जॉर्ज फ़ेरारका उद्देश्य यह बताना है कि इस मदमें १०,००० पौंडकी स्वीकृति सार्वजनिक धनका अपव्यय है। इन महानुभावोंकी रायसे हम पूरी तरह सहमत हैं। जिनपर यह खर्च किया जायेगा उन्हें इससे कोई लाभ नहीं है । परन्तु ऐसा लगता है कि यदि शाही सरकार अपने कर्त्तव्यका पालन जागरूकताके साथ न करे तो यह रकम बचाई नहीं जा सकती । माननीय उपनिवेश-सचिवने जो आँकड़े दिये हैं उनसे पता चलता है कि कोई १०,००० ब्रिटिश भारतीयोंके लिए ५४ अलग-अलग जगहोंमें बस्तियाँ बनेंगी। इसमें सख्तीके सवालके अलावा भी हमें यह कल्पना राक्षसी लगती है । इस सिलसिलेमें हमें भारतकी एक घटना याद आती है। अन्य किसी भी जगहकी अपेक्षा वहाँ लालफीताशाही बहुत अधिक है । अगर एक अफसरको ऐसा लगा कि किसी मामलेमें एक आनेका टिकट अधिक लग गया है, तो इसपर महीनों लिखा-पढ़ी चली और रीमों कागज खर्च हो गया । ट्रान्सवालके बाजारोंका किस्सा भी बहुत-कुछ इस भारतीय अफसरके कारनामे जैसा ही है । उपनिवेश-सचिवने सज्जनतापूर्वक बताया कि कितने ही स्थानोंमें बहुत कम भारतीय हैं। फिर भी इन ५४ जगहोंमें बस्तियाँ बनानी ही होंगी। श्री चेम्बरलेनने इस प्रश्नपर पुनः विचार करनेका आश्वासन दे रखा है, उपनिवेश-सचिव भी यह स्वीकार कर चुके हैं कि वर्तमान कानूनके बदले