पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/४५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४१०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही थी । दक्षिण आफ्रिकामें जबसे लड़ाई शुरू हुई भारतसे १३,००० अंग्रेज सिपाही तथा अफसर वहाँ भेजे गये। इनके साथ नौ हजार भारतीय अन्य काम-काजमें मददके लिए तथा नौकरोंके तौरपर गये थे। चीनमें भारतसे १,३०० ब्रिटिश अफसर और सिपाही तथा २०,००० देशी फौज भेजी गई थी। इसके साथ १७,००० देशी नौकर-चाकर थे । इस प्रकार अत्यन्त थोड़े समयकी सूचनापर, और अपने कामको क्षति पहुँचाये बिना भारत अपनी सीमाओंसे बाहर साम्राज्यकी सामरिक शक्तिमें इतना योग दे सकता है।

इस तरह पिछली लड़ाईमें कमसे-कम ९,००० ब्रिटिश भारतीयोंने यहाँ अपनी सेवाएँ दी हैं। हाथोंमें हथियार न होनेपर भी फौजके साथ रहनेवाले इन लोगोंने खतरों और कठिनाइयोंके अवसरपर जो वीरता दिखाई उसका वर्णन करना अनावश्यक है ।

हम सेवाओंकी यह सूची लंबी नहीं करना चाहते और न उनपर जरूरतसे ज्यादा जोर देना चाहते हैं । हम यह भी जानते हैं कि इन तमाम उदाहरणोंमें ब्रिटेनके बोझका हिस्सा भारतसे कहीं अधिक, कठिन और विपुल रहा है । परन्तु हम यह भी कह दें कि दोनोंमें से प्रत्येकको सहूलियतें और विशेषाधिकार कितने प्राप्त थे इसकी तुलना की जाये तो तसवीर भारतके विपक्षमें नहीं जायेगी। बीचमें एक बात और । अक्सर यह कहकर भारतीयोंका मुँह बन्द करनेकी कोशिश की जाती है कि आखिर भारतीय विजित कौम है। इसलिए भारतीयोंको ठीक ब्रिटिशोंके -- से अधिकारका हक नहीं है। किन्तु हम इसे विचारणीय नहीं मानते -– दो प्रबल कारणोंसे । पहला अध्यापक सीलीने अपने ग्रेटब्रिटेनका विस्तार (एक्सपैंशन ऑफ ग्रेट ब्रिटेन) नामक ग्रन्थमें दिया है कि सही अर्थमें देखें तो भारत एक विजित देश नहीं है । वह अंग्रेजी राज्यमें इसलिए हुआ कि उसके अधिकांश निवासियोंने शायद स्वार्थवश ब्रिटिश राज्यको स्वीकार किया। दूसरा कारण यह है कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञोंने असंख्य बार, अन्य बातोंमें कोई फर्क न हो तो, विजयी और विजितके बीच असमानताको माननेसे इनकार किया है। और ऐसा उन्होंने ब्रिटिश भारतीयोंके बारेमें खास तौरपर किया है।

इस तरह अब हम उपनिवेशियोंसे एक सीधा-सा सवाल पूछ सकते हैं । उपनिवेशी जो अधिकार यहाँ और दूसरी जगह अपने लिए चाहते हैं, भारतीयोंको नागरिकताके वे ही सामान्य अधिकार यदि ब्रिटिश राज्यमें अप्राप्य हों तो साम्राज्यकी कल्पनामें भारतका स्थान कहाँ है ? क्या यह सौदा न्यायपूर्ण माना जायेगा कि भारतसे अपेक्षा तो की जाये कि वह साम्राज्यका बोझ उठाता रहे और उसके लाभोंसे वंचित बना रहे ? यह सच है कि हम सब अगर हमारा बस चले तो दूसरोंको निकालकर बाहर कर दें और सब कुछ अपने लिए रख छोड़ें। परन्तु जबतक दक्षिण आफ्रिकाके निवासी ब्रिटिश साम्राज्यके अन्दर रहना स्वीकार करते हैं तबतक क्या उन्हें यह हठपूर्ण रुख धारण करना शोभा देता है कि "हम किसी बातका विचार किये बिना जो चाहते हैं सो सब ले लेंगे ?" इंग्लैंडको इस बातपर गर्व है कि भारत उसके साम्राज्यका एक अंग है । और, इस गौरवके साझेदार समस्त ब्रिटिश प्रजाजन बनना चाहते हैं । और इस तरह इस उपनिवेशको जिन्होंने अपना घर बना लिया है वे भी । तो क्या साम्राज्यको सहयोग देनेवाले उसके अंग करोड़ों भारतीयोंका निरन्तर अपमान करते हुए इस गौरवके साझेदार बननेमें उन्हें सन्तोषका अनुभव होता है ?

हमारी समझमें ये उपनिवेशियोंके ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य गंभीर विचार हैं ।

शायद हमसे कहा जाये कि जहाँतक सिद्धान्तोंका सवाल है ये विचार कागजपर बड़े अच्छे दिखाई देते हैं; परन्तु यदि इनपर प्रत्यक्ष जीवनमें व्यवहार किया जाये तो इनके परिणाममें