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लंदनकी सभा

सकट ही हाथ लगेगा। इन सज्जनोंसे हमारा पूर्व निवेदन है कि हम इन्हें निरे देखनेके कागजी सिद्धान्त नहीं मानते । ये ही वे सिद्धान्त हैं जिन्होंने ग्रेट ब्रिटेनको वर्तमान प्रतिष्ठा प्रदान की है और ये ही सिद्धान्त आज भी उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं। भले ही यहाँ-वहाँ थोड़ी भूल हो सकती है। अगर वृहत्तर ब्रिटेन चाहता है कि वह अपनी परम्परापर आगे भी कायम रहे तो उसे हमारी सलाह है कि वह आगे बढ़नेसे पहले जरा रुक कर देख ले, क्योंकि हमें आगे एक भयंकर खाई दिखाई दे रही है ।

उपनिवेशियोंके सामने हम अपने ये विचार इस आशाके साथ पेश कर रहे हैं कि वे इनको उसी भावसे ग्रहण करेंगे जिस भावसे ये पेश किये गये हैं ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३०-७-१९०३

२९१. लंदन की सभा: २

सर वि० वेडरबर्नका भाषण

ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिपर लंदनकी सभामें सर विलियम वेडरबर्नका भाषण हुआ था ।[१] हम पूर्व भारत संघ (ईस्ट इंडिया असोसिएशन)के तत्त्वावधानमें हुई इस सभाके बारेमें एक बार पहले लिख ही चुके हैं। सर विलियमने उस प्रतिष्ठित श्रोतृ-समुदायके सामने जो विचार रखा उसपर आज हम विशेष रूपसे विचार करेंगे ।

वक्ताने अपने भाषणको तीन भागोंमें बाँट दिया था ।

बाजार-सूचना, अर्थात्, इस वर्षकी सूचना ३५६ के रूपमें ट्रान्सवालकी सरकारने जो रुख ले रखा है उसपर सर विलियमने भाषणके पहले भागमें अपने विचार प्रकट किये । बाजार-सूचनाने ट्रान्सवालमें भारतीयोंके दर्जेको लड़ाईके पहले उनकी जो स्थिति थी उससे कहीं नीचे गिरा दिया है। इस निर्णयपर पहुँचनेमें उन्होंने पसोपेश नहीं किया। उन्होंने ठीक ही कहा, चूंकि भारतीयोंका "थोड़ेसे थोड़ा बुरा आचरण" भी सिद्ध नहीं हो सका है, और "चूंकि इस बातको सबने स्वीकार किया है कि हालके पूरे संकटमें भारतीयोंने अपने आपको राज्यके प्रति वफादार और उपयोगी नागरिक सावित किया है और लड़ाईके दरमियान बीमारों और घायलोंकी कीमती सेवाएँ की हैं," इसलिए लॉर्ड मिलनरको चाहिए था कि वे कमसे-कम "तबतक तो यथावत् स्थिति कायम रखते ही, जबतक कि इस प्रश्नके बारेमें, जो स्पष्टतः साम्राज्यका प्रश्न है, साम्राज्यके उच्च अधिकारीगण कोई निर्णय न कर लेते ।"

श्री चेम्बरलेनकी घोषणामें कहा गया है कि एशियाई-विरोधी कानूनोंका अमल पहलेकी अपेक्षा अधिक नरमीके साथ किया जा रहा है। किन्तु प्रश्नके इस पहलूपर, जैसा कि हम पहले भी एक बार सप्रमाण बता चुके हैं, श्री चेम्बरलेनके प्रति आदर रखकर -- हमें फिर कहना होगा कि आज भारतीयोंकी स्थिति लड़ाईके पहलेकी अपेक्षा कहीं अधिक खराब है। परवाने बहुत कम संख्यामें दिये जा रहे हैं। भारतीय जमीन-जायदाद नहीं रख सकते । बस्तियोंसे बाहर व्यापार करनेके लिए नये परवाने जारी नहीं किये जा रहे हैं, और अनुमति-पत्रके नियमोंका

  1. देखिए "लंदन की सभा",२३-७-१९०३|