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पत्र: उपनिवेश सचिवको

मेरी समिति आपका ध्यान निम्न बातोंकी ओर आकृष्ट करनेका साहस करती है :

(१) जायदाद हस्तान्तरित करानेका यह मामला कई वर्षोंसे विचाराधीन है।

(२) युद्धसे पहले ब्रिटिश एजेंटने मेरी समितिको विश्वास दिलाया था कि यदि युद्ध छिड़ गया तो उसके बाद, जायदादके हस्तान्तरणमें किसी किस्मकी दिक्कत नहीं होगी ।

(३) मेरी समितिको मालूम हुआ है कि सरकारको अधिकार है कि वह चाहे तो जायदादके उस खास हिस्सेको अलग करके और यह कहकर कि इसमें केवल ब्रिटिश भारतीय लोग ही अचल सम्पत्तिके मालिक हो सकेंगे, जायदादके हस्तान्तरणकी इजाजत दे सकती है।

(४) यदि वर्तमान कानूनके संकीर्ण अर्थोंमें, सरकारका यही खयाल हो कि उसे ऐसा कोई अधिकार नहीं है, तो भी, पहले बतलाये अनुसार, वह इस मामलेमें कानूनको ठीक उसी प्रकार शिथिल कर सकती है जिस प्रकार उसने परवानोंके मामलेमें किया है।

(५) यह मामला दिन-प्रतिदिन चिन्तनीय होता जा रहा है, क्योंकि जिन सज्जनके नाम जायदाद इस समय दर्ज है वे बहुत बूढ़े हैं ।

(६) मेरी समितिकी प्रार्थनाको न मानकर सरकार एक भारी जिम्मेवारी अपने सिर ले रही है, क्योंकि यदि जायदादके वर्तमान दफ्तर-दर्ज मालिकका, हस्तान्तरणसे पहले ही, देहान्त हो गया तो यह जायदाद मुस्लिम जमातके हाथसे निकल जायेगी और उसे भारी नुकसान उठाना पड़ेगा ।

(७) मेरी समितिकी नम्र सम्मति है कि धर्मके विचारसे ही सही, इस मामलेमें ब्रिटिश भारतीय लोगोंका लिहाज किया जाना चाहिए विशेषकर जब यूरोपीयोंका विद्वेष उनके मार्गमें बाधक नहीं है ।

(८) मेरी समितिको यह देखकर दुःख है कि सरकार भारतीय लोगोंकी धार्मिक भावनाओंतक की उपेक्षा कर रही है।

(९) परमश्रेष्ठ गवर्नरने विश्वास दिलाया था कि विधान परिषदका जो अधिवेशन अभी समाप्त हुआ है उसीमें नये विधेयकके पेश हो जानेकी सम्भावना थी। इससे मेरी समितिको आशा हो गई थी कि हमें शीघ्र ही राहत मिल जायेगी। परन्तु ऐसा कोई कानून न बनता देखकर मेरी समितिको भारी निराशा हुई है।

उपर्युक्त कारणोंसे, और इस मामलेके बहुत जरूरी होनेके कारण, मेरी समिति अब भी साहस करके यह आशा बाँधे हुए है कि सरकार आवश्यक सहायता करनेकी कृपा करेगी।

आपका आज्ञाकारी सेवक,
(ह०) हाजी हबीब

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-८-१९०३