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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

क्योंकि जिन शर्तोंपर गिरमिटिया मजदूरोंको लाया जाता है उससे आगे चलकर किसी भी पक्षको लाभ नहीं हो सकता। यूरोपीयोंके लिए नैतिक दृष्टिसे वह अत्यन्त हानिकर है और मजदूरोंके लिए आर्थिक दृष्टिसे पूरी तरह नुकसानदेह है।

दूसरे मुद्देका जहाँतक सम्बन्ध है, हमें आशा है, मजदूरोंको वापस स्वदेश भेज देनेवाले प्रस्तावको, जिसे श्री चेम्बरलेनने एक अजीब प्रस्ताव कहा है, भारत सरकार कभी स्वीकार नहीं करेगी। आजतक ऐसा कभी नहीं हुआ है। दूसरे उपनिवेशोंके ऐसे प्रस्तावोंको अबतक भारत सरकारने सुननेसे इनकार किया है। ट्रान्सवालके बारेमें हम जानते हैं कि भारत-सरकारपर इस मामलेमें बहुत भारी, और ऊँचे हलकोंसे भी, असर डाला जायेगा। परन्तु हमारा खयाल है कि भारतीयोंके हितोंकी रक्षा करना भारत सरकारका विशेष कर्तव्य है । वह इनका पलड़ा हलका नहीं होने देगी। और अगर गिरमिटकी अवधि पूरी होनेपर मजदूरोंको स्वदेश वापस लौटानेका हठ जारी रहा तो उसमें भारतीयोंका हित होगा, यह बात कल्पनासे परे है। यह तो खुद लॉर्ड मिलनर भी नहीं कहते । वे तो "लोक-भावनाको दृष्टिमें रखते हुए" यह सुझाव दे रहे हैं। और अगर दक्षिण आफ्रिका-निवासी ब्रिटिश भारतीय अपने कुछ कमजोरीके क्षणोंमें अपनी आजादीके बदले भारतीय मजदूरोंकी आजादीको बेचनेका सिद्धान्त स्वीकार कर लेंगे तो वे भारतमें रहनेवाले अपने हजारों दीनतर भाइयोंके अधिकारोंको सिर्फ अपने तुच्छ लाभके लिए बेच देनेके दोषी माने जायेंगे ।

परन्तु भारतीय समाजकी दृष्टिसे खासकर ट्रान्सवालमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मुद्दा तो तीसरा है । और ट्रान्सवालमें जो भारतीय बसे हैं उनकी ओरसे भारत सरकार अपनी बात पर अड़ी हुई है, यह देखकर हमें खुशी होती है। बेशक, "अच्छे वर्गके एशियाई" और "सट्टेकी सम्पत्ति" का क्या अर्थ है यह जानना बहुत मुश्किल है। हमें बहुत भय है कि लॉर्ड कर्ज़न और लॉर्ड मिलनर इन दोनों शब्दोंका कहीं एक ही अर्थ न स्वीकार कर लें। यह भी पूर्ण रूपसे सम्भव हो सकता है कि एक-एक करके छाँटनेकी पद्धतिके द्वारा वे किसी भी एशियाईको अच्छे वर्गवाला माननेसे इनकार कर दें। इसी प्रकार कौन कह सकता है कि मामूली जायदादकी भी गिनती "सट्टेकी सम्पत्ति"में नहीं कर ली जायेगी। परन्तु अभी तो हम इन मुद्दोंपर यों ही विचार कर रहे हैं । अभी इन्होंने कोई साकार रूप धारण नहीं किया है। कौन कह सकता है कि भारत सरकारके प्रस्तावोंको ट्रान्सवालकी सरकार किस हद तक माननेको तैयार होगी। इस स्थलपर तो हम भारत सरकारसे केवल यह स्मरण रखनेकी प्रार्थना करेंगे कि अब जो कुछ भी वह करे साफ हो, असन्दिग्ध हो और निश्चित हो। किसी भी तरह की ढील खतरनाक होगी, क्योंकि हम इसके भुक्तभोगी हैं। इसलिए हमारा सुझाव है कि जो भी परिभाषाएँ हों, कानूनमें स्पष्ट रूपसे लिख दी जायें। किसी अधिकारीकी मर्जीपर उन्हें न छोड़ा जाये। जैसा कि लॉर्ड मिलनरने कहा है, मुख्य बात है ब्रिटिश भारतीयोंका दर्जा निश्चयात्मक ढंगसे स्पष्ट कर देना, जिससे कि हर कोई जान सके कि वह क्या है ।

लॉर्ड जॉर्ज हैमिल्टनने ऑरेंज रिवर उपनिवेशके कानूनको भी अपने प्रस्तावोंमें शामिल कर लेनेकी कृपा की है। इसके लिए हम उनके बड़े ऋणी हैं। अब समय आया है कि इस उपनिवेशके विधान-निर्माताओंकी एशियाई-विरोधी कामोंकी प्रगति रोकी जाये। जैसा कि हम इन स्तम्भोंमें बता चुके हैं, शायद ही कोई महीना बीतता हो, जिसमें इस ब्रिटिश उपनिवेशके अन्दर ब्रिटिश भारतीयोंपर कोई नई कैद न लगाई जाती हो ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ६-८-१९०३