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२९८. लन्दनको सभा: ३

सर चार्ल्स डाइक और पूर्व भारत संघ

पूर्व भारत संघमें सर विलियम वेडरबर्नने दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिपर जो भाषण दिया था उसका जिक्र हम कर चुके हैं। परन्तु चूँकि हम समझते हैं कि यह सभा बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण थी और उसमें जो भाषण हुए उनपर उपनिवेशियोंको बहुत गौर करना चाहिए, इसलिए इस सभाके अध्यक्ष पदसे दिये गये सर चार्ल्स डाइकके भाषणपर हम यहाँ विचार करना चाहते हैं ।

ये माननीय महानुभाव भारतीय मामलोंमें बहुत सहानुभूतिके साथ दिलचस्पी लेते रहे हैं। दक्षिण आफ्रिकामें जबसे ब्रिटिश भारतीयोंका संघर्ष शुरू हुआ है, उसका ये सहानुभूतिके साथ अध्ययन करते रहे हैं और हमें न्याय दिलानेके लिए यत्नशील भी रहे हैं । अतः इनके तथा अन्य प्रसिद्ध मित्रोंके, जो संकटमें हमारे सहायक रहे हैं, हम अत्यन्त अनुगृहीत हैं । सर चार्ल्सने उपनिवेशोंके प्रश्नका विशेष रूपसे अध्ययन किया है। अतः उपनिवेशियोंसे हमारा अनुरोध है कि इनके विचारोंको उन्हें खास तौरपर अधिक आदरके साथ सुनना चाहिए । बहत्तर बिटेनकी समस्याएँ (दि प्रॉब्लेम्स ऑफ़ ग्रेटर ब्रिटेन) के ये रचयिता उपनिवेशोंके प्रश्नके हर पहलूको बहुत बारीकीसे जानते हैं । अतः हम आशा करते हैं समुद्रके पार दूर-दूरतक फैले हुए सम्राट्के प्रदेशोंके विषयमें परिपक्व अनुभव रखनेवाले इन महानुभावके शब्दोंको उनके अनुरूप महत्त्व दिया जायेगा ।

सर चार्ल्स डाइकने इस सभामें अपने प्रारम्भिक कथनमें कहा:

आज हम ट्रान्सवालमें भारतीयोंकी स्थितिपर विशेष रूपसे विचार करनेके लिए एकत्र हुए हैं। परन्तु सच तो यह है कि अपना देश छोड़कर ब्रिटिश साम्राज्यमें भारतीय जहाँ-जहाँ भी गये हैं, उन सबकी स्थितिके बारेमें भारतमें बड़ी चिन्ता फैली हुई है। एक बार भारत-मन्त्रीको सेवामें एक शिष्टमण्डल उपस्थित हुआ । उस समय में भी वहाँ उपस्थित था। शिष्टमण्डलका परिचय स्वर्गीय श्री केनने कराया था। शिष्टमण्डलने उसी सिद्धान्तकी पैरोकारी की थी, जिसे लेकर सर विलियम वेडरबर्न आज शामको इस सभामें उपस्थित हुए हैं। सिद्धान्त यह था कि ब्रिटिश भारतके निवासियोंको ब्रिटिश साम्राज्यके समस्त भागोंमें पूरी आजादीके साथ रहने और अपना व्यापार-व्यवसाय स्वतन्त्रतापूर्वक करनेका अधिकार होना चाहिए। मुझे याद है, उस दिन उस बैठकमें इस सिद्धान्तका प्रतिपादन जितने अधिक जोरके साथ खुद भारत-मन्त्रीने किया था उतना और किसीने नहीं। शिष्टमण्डलके किसी भी सदस्यके लिए असम्भव था कि वह परममाननीय महानुभावकी बातसे सन्तुष्ट हुए बिना लौटता।

ऊपरके उद्धरणसे सर चार्ल्स डाइकके भाव प्रकट हैं। कोई व्यक्ति इस प्रश्नका जितना ही अध्ययन करेगा वह दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंकी तरफसे पेश किये गये दावोंकी न्याय्यताका उतना ही अधिक कायल होगा। पिछले हफ्ते हमने ट्रान्सवालमें प्रकाशित पत्र-व्यवहार उद्धृत किया था। उसमें भारत सरकारने इसी प्रकारके भाव प्रकट किये हैं। परन्तु उसपर हम आगे कभी विचार करेंगे।