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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

इस सभाका पूर्व भारत संघके तत्त्वावधानमें होना भी एक बड़ी मार्केकी बात है । इंग्लैंडमें भारतीय मामलोंसे सम्बन्ध रखनेवाली संस्थाओंमें यह एक सबसे पुरानी संस्था है। और इसके सदस्योंमें अधिकांश अवकाश प्राप्त वाइसराय, गवर्नर और भारतीय प्रश्नोंके अध्ययनमें जिन्होंने वर्षों गुजार दिये हैं, ऐसे अनेक प्रतिष्ठित आंग्ल-भारतीय सज्जन शामिल हैं। ऐसे पुरुषोंका संघ दक्षिण आफ्रिकामें बसे सम्राट्के भारतीय प्रजाजनोंके पक्षमें अपना महान् प्रभाव डाले यह हमारे लिए निःसन्देह अत्यन्त सन्तोषका विषय है। इससे साफ प्रकट होता है कि न केवल हमारी माँगें न्याययुक्त हैं, बल्कि अगर हम पर्याप्त धैर्यसे काम लें तो अन्तमें हमारी विजय भी निश्चित है। लोकमतके शिक्षणमें हमारा बड़ा विश्वास है । और हमें निश्चय है कि उपनिवेशियोंको इस प्रश्नपर जितनी भी विचार-सामग्री दी जायेगी उतनी ही जल्दी इसका हल निकलनेवाला है । इसीलिए पूर्व भारत संघकी कार्यवाहियोंको हम यथासम्भव प्रमुख रूपसे उनके सामने रखनेका प्रयत्न करते हैं ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ६-८-१९०३


२९९. प्रवासी-प्रतिबन्धक विधेयक

ब्रिटिश भारतीयों द्वारा विधान परिषदको भेजे गये प्रार्थनापत्रपर सहानुभूतिपूर्वक सुनवाई करानेके सम्बन्धमें माननीय श्री जेमिसनके सारे प्रयत्नोंके बावजूद प्रवासी प्रतिबन्धक विधेयक बगैर किसी संशोधनके पास हो गया। श्री डान टेलरकी यह स्पष्ट उक्ति सच हो गई है कि इस प्रार्थनापत्रको छपाना सार्वजनिक धनका अपव्यय है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों सदनोंने पहले हीसे फैसला करके विधेयकके बारेमें अपना मत स्थिर कर लिया था। भारतीयोंका यह हक था कि उनकी बात सुनी जाये। परन्तु उनका यह अधिकार व्यवहारतः छीन लिया गया। इस ताजे उदाहरणपर सर जॉन रॉबिन्सनके क्या विचार हैं हम जानना चाहते हैं । मताधिकार छीननेवाला विधेयक जब प्रस्तुत किया गया था तब उन्होंने घोषित किया था कि जिनका मताधिकार छीना जा रहा है उनके अधिकारोंकी रक्षा बहुत सावधानीके साथ की जायेगी। क्योंकि, अब इस सदनका प्रत्येक सदस्य अपनेको मताधिकारहीन लोगोंके अधिकारोंका कुछ हदतक संरक्षक मानेगा। भारतीय बखूबी कह सकते हैं कि 'भगवान बचाये ऐसे रक्षकोंसे'। हमें आशा है, हमने अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है कि प्रार्थनापत्र भेजनेवालोंकी विनती बहुत उचित थी । कानूनके सिद्धान्तपर उनकी स्वीकृतिका कुछ अर्थ होता। और यह भी वे बतौर प्रयोगके सुझा रहे थे । परन्तु हमारे विधान-निर्माताओंने कुछ और ही सोचा। उनके लिए तो भारत तथा साम्राज्यके प्रति अपना सहज कर्तव्य पालन करनेकी अपेक्षा अपने साथी भारतीय प्रजाजनों और उनकी सुसंस्कृत भाषाओंका अपमान करनेका आनन्द अधिक मूल्यवान था । उन्हें इस बातसे संतोष है कि वे भारतीय मजदूर पा सकते हैं जिनकी उपनिवेशकी समृद्धिके लिए अनिवार्य रूपसे आवश्यकता है। हमें बताया गया है कि सदस्यगण प्रार्थनाके साथ अपना कार्य आरम्भ करते हैं और स्पीकर या अध्यक्षकी मेजपर बाइबिलकी पोथीको विशिष्ट स्थान प्राप्त होता है। क्या हम पूछें कि नाजरथके पैगम्बरके अनुयायियोंका अपने प्रभुकी जबानसे निकले इस छोटेसे पद्यकी तरफ कभी ध्यान गया है 'दूसरोंसे जैसे व्यवहारकी अपेक्षा करते हो वही दूसरोंके साथ करो' ? अथवा छापनेवालोंने