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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जब ज्ञापन कहता है कि उपनिवेश-सचिव स्थानिक निकायोंकी सलाहसे बस्तियों का निश्चय करें तो वह इन निकायोंको केवल मान प्रदान करता है। साथ ही वह अपेक्षा करता है कि ये निकाय अपनी हदतक समझदारीका परिचय देंगे । और, कुछ न कहें तो भी, हमें ऐसा तो लगता ही है कि जो बात केवल शिष्टाचारके रूपमें कही गई है उसे अपना अधिकार समझकर बॉक्सबर्गका स्वास्थ्य निकाय जब उपनिवेश-सचिवपर हावी होनेका यत्न करता है तो यह उचित नहीं है। हमने इसपर बहुत विस्तारसे इसलिए विचार किया कि हम अनुभव करते हैं, स्वास्थ्य निकायने जो पक्ष ग्रहण किया है वह स्पष्ट ही कानून सम्मत नहीं है। अच्छा होता अगर सहयोगी वे वाक्य न लिखता जो उसने अपने जवाबके अन्तमें लिखे हैं । ऐसा लगता है कि वर्तमान बस्तीमें रहनेवाले भारतीयोंको उनमें एक धमकी है । हमको इस विचार-मात्रसे दुःख होता है कि बॉक्सबर्गके निवासी अपने आपको तथा साम्राज्यके बन्धनोंको भूलकर कानूनको अपने हाथमें ले लेंगे और अगर इन बस्तियोंमें रहनेवाले भारतीय धमकियोंसे डर जायें तो वे यहाँसे हटनेके ही योग्य हैं। दक्षिण आफ्रिकामें कायरोंके लिए कोई स्थान नहीं है । इस मौकेपर हमें वह घटना याद आती है जो कुछ वर्ष पहले अलीवाल-नार्थमें घटी थी । एक भारतीय व्यापारी अपने विक्रेता-परवानेको नया करवाना चाहता था । यह परवाना बरसोंसे उसके पास था । स्थानीय यूरोपीय नहीं चाहते कि उसे यह दिया जाये, फिर भी मजिस्ट्रेटने उनकी नहीं सुनी। उसे नया परवाना दिलवा दिया। इसपर यूरोपीय खूब आग-बबूला हुए। सैकड़ोंकी भीड़ व्यापारीके भण्डारपर पहुँची और उसे तरह-तरहकी धमकियाँ देकर कहने लगी कि अभी यहाँसे चले जाओ । भारतीय व्यापारी जबरदस्त विपरीत परिस्थितियोंमें भी अपनी बातपर डटा रहा और उसने हटनेसे दृढ़तापूर्वक इनकार किया । अन्तमें सरकारने उसकी रक्षा की और उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा। हम अंग्रेजी राज्यमें रह रहे हैं, रूसी राज्यमें नहीं ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-८-१९०३

३११. मुसीबतोंके फायदे

इसमें कोई शक नहीं कि दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीय चारों ओर प्रतिबन्धोंसे घिरे हुए हैं, जो अपने-अपने उपनिवेशके अनुसार कहीं कम और कहीं अधिक कठोर हैं । और, उनके बारेमें गलतफहमियां भी बहुत हैं। अबतक जिन पाठकोंने इन पृष्ठोंको ध्यानसे पढ़ने और समझनेका थोड़ा भी यत्न किया होगा उन्होंने यह देखा होगा कि हमारी उपर्युक्त दोनों बातोंकी पुष्टिके पर्याप्त प्रमाण भी हैं। इस लेखमें हम बताना चाहते हैं कि इन विपरीत परिस्थितियोंसे हम क्या सबक सीख सकते हैं। कहते हैं, मुसीबतोंका फल मीठा होता है । समझदार आदमी उनसे कुछ सीख सकता है। अब हम देखें कि हमने इनसे क्या सीखा है ? भारतमें बसनेवाली अलग-अलग कौमोंमें तरह-तरहके भेद हैं। उदाहरणके लिए तमिल, कलकतिया -- उत्तरके प्रान्तोंके निवासियोंको यहाँके लोग इसी नाम से बुलाते हैं -- पंजाबी, गुजराती आदि। इसके अलावा हिन्दू, मुसलमान, पारसी वगैरह धर्मोके अनुसार भेद भी हैं। फिर हिन्दुओंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दूसरे लोग हैं। अब, हमारी समझमें, अगर हम अपने देशसे इन सब भेदों और फर्कोको कीमती और रक्षणीय माल समझकर इतनी दूर लाये हों तो इसमें कोई शक नहीं कि वह कदम-कदमपर हमारे रास्तेमें अड़ेगा । और इसलिए हमारी