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३१८. पूर्वग्रह मुश्किलसे दूर होते हैं

डेली टेलिग्राफके जोहानिसबर्ग स्थित विशेष संवाददाताने ट्रान्सवालके भारतीयोंकी स्थितिके विषयमें एक पत्र लिखा है, जो हम अन्यत्र दे रहे हैं । इस पत्रके लिए हम टाइम्स ऑफ इंडियाके आभारी हैं । यद्यपि पत्र पुराना है, परन्तु उसे पाठकोंकी नजरोंमें लाते हुए हमें खुशी होती है; क्योंकि उससे पता चलता है कि भारतीयोंकी स्थितिके बारेमें दूसरे क्या सोचते हैं। इसके अलावा पत्रसे यह भी प्रकट होता है कि एक बार जो पूर्वग्रह बन जाता है वह आसानीसे दूर नहीं होता । डेली टेलिग्राफके सुयोग्य संवाददाता श्री एलेस्थापको हम जानते हैं। हमें विश्वास है कि वे जानबूझकर किसीके साथ अन्याय नहीं करेंगे, और ब्रिटिश भारतीयोंके साथ तो हरगिज नहीं। फिर भी उन्होंने जो लिखा है उसमें ब्रिटिश भारतीयोंके बारेमें प्रचलित भ्रमके वे शिकार हो गये हैं ।

ये विशेष संवाददाता लिखते हैं:

दूसरी तरफ, सरकारपर दोषारोपण करनेमें भारतीयोंने अपनी बात अधिक बढ़ा चढ़ाकर कही है। संक्षेपमें, उन्होंने ब्रिटिश सरकारपर विश्वासघातका दोष लगाया है । वे कहते हैं कि सन् १८८५ में आपने ट्रान्सवाल-सरकारकी कार्रवाइयोंका विरोध किया था और ब्रिटिश प्रजाजनकी हैसियतसे उपनिवेशमें प्रवेश पाने, रहने और व्यापार करनेके हमारे अधिकारोंका प्रतिपादन किया था; और अब आप वह सब भुलाकर खुद ही उन्हीं अन्यायपूर्ण कानूनों को हमपर लागू कर रहे हैं। अगर यह दलील सही होती तो इसका हम कोई जवाब नहीं दे सकते थे; परन्तु यह सही नहीं है । अपने पत्र-व्यवहारमें लॉर्ड रिपन और सर एडवर्ड स्टनहोप -- दोनोंने उपनिवेश मन्त्रियोंकी हैसियतसे समझौतेकी धारा १४ को बदलनेके लिए अपनी स्वीकृति दी है। ट्रान्सवाल- सरकार उसे सफाईके कारणोंको लेकर बदलना चाहती थी; और ब्रिटिश सरकारने इसपर अपनी अनुमति दे दी। जब यह मामला फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशके पास निर्णयके लिए भेजा गया तब ब्रिटिश सरकारने बस्तियोंमें रहनेके लिए भेजे जानेवाले मुद्देको स्पष्ट रूपसे मंजूर कर लिया और केवल यह माँग की कि भारतीयोंको वतनी बाजारोंसे बाहर व्यापार करनेका अधिकार हो । इसपर श्री चेम्बरलेनने, जिनसे भारतीयोंने खास तौरपर विनती की थी, सन् १८८५ में लिखा था : 'इन व्यापारियोंके बारेमें दक्षिण आफ्रिकाकी गणराज्य सरकारसे में मित्रतापूर्वक कहूँगा कि एक बार कानूनी स्थिति अच्छी हो जानेपर क्या इस सारी स्थितिपर नये दृष्टिकोणसे विचार करना बुद्धिमत्तापूर्ण न होगा। वह इस बारेमें सोचे और यह निश्चय करे कि अपने नागरिकोंके हितोंकी दृष्टिसे भी भारतीयोंके साथ अधिक उदारताका व्यवहार करना और व्यापारिक ईर्ष्याको प्रश्रय देनेके दिखावेसे भी अपने आपको बचाना अधिक अच्छा होगा या नहीं। मुझे तो सकारण विश्वास है कि प्रजातन्त्रके शासकवर्गमें यह ईर्ष्या कहीं नहीं है ।'

अब, इन वक्तव्यों में एक नहीं, कई गलतियाँ हैं । यह बड़े दुर्भाग्यकी बात है कि आजकलकी इस दौड़-भागमें कोई बात लिखने और संसारके सामने पेश करनेसे पहले लोग पूरी