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पूर्वग्रह मुश्किलसे दूर होते हैं।

तरह पूछताछ करके यह पता नहीं लगा पाते कि वे कहाँतक सही हैं। किसीके साथ अन्याय करनेकी रत्तीभर इच्छा न होते हुए भी यदि डेली टेलिग्राफ जैसे प्रभावशाली पत्रमें कोई ऐसी बात छप जाये, जो सत्यपर आधारित न हो, तो इससे बहुत-से मामलोंमें इतनी हानि हो सकती है, जिसकी कभी पूर्ति नहीं हो सकेगी। जहाँतक हमें पता है ब्रिटिश भारतीयोंने ( हमारा मतलब प्रातिनिधिक हस्तीके ब्रिटिश भारतीयोंसे है) कभी एक भी बात बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कही है। सच तो यह है कि जिन्होंने मामलेको समझा और उसका अध्ययन किया है, उन्होंने अक्सर यह स्वीकार किया है कि ब्रिटिश भारतीयोंने अत्यन्त संयमसे काम लिया है । अत्युक्तिसे उनको सिवा हानिके कोई लाभ नहीं है। लड़ाईके पहले पुराने गणराज्यके जिन कानूनोंका ब्रिटिश सरकारने जोरोंसे विरोध किया था उन्हींपर वह अब ट्रान्सवालमें खुद अमल कर रही है। यह तो एक ऐसा सत्य है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। श्री चेम्बरलेनके खरीतेका जो उद्धरण दिया गया है वह यद्यपि सही है, तथापि वह स्वर्गीया महारानीकी सरकारके इस प्रश्न-सम्बन्धी रुखको ठीक तरहसे प्रकट नहीं करता । खरीता तो केवल यह कहता है कि पुरानी ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशके निर्णयके बाद कानूनी रिश्ते समाप्त हो जाते हैं । परन्तु श्री चेम्बरलेनने बादमें लिखा है कि “बोअर-सरकारको मित्रभावसे सलाह देने और नये दृष्टिकोणसे अपने निर्णयपर पुन: विचार करनेके लिए उससे कहनेका अधिकार उन्हें है ।" यही नहीं; दक्षिण आफ्रिकाके प्रश्नोंपर प्रकाशित सरकारी रिपोर्ट (ब्ल्यू-बुक)में कितने ही तार छपे हैं, जो श्री चेम्बरलेनके इस खरीतेके बादके हैं। इनमें उस कानूनपर अमल करनेका विरोध किया गया है और बोअर-सरकारसे कहा गया है कि वह भारतीयोंके साथ अधिक नरमीका व्यवहार करे। स्वर्गीया महारानीकी सरकारकी ओरसे ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशको जो पत्र दिया गया था उसमें सन् १८८५ के तीसरे कानून की व्याख्या इस प्रकार की गई है: "सफाईकी दृष्टिसे ब्रिटिश भारतीयोंको उनके लिए मुकर्रर जगहोंमें रहनेकी अनुमति दी जाये।" और ब्रिटिश भारतीयोंने इसके विरोधमें कुछ भी नहीं कहा है । परन्तु असल बात तो यह है -- और इसे ब्रिटिश भारतीयोंकी तरफसे बार-बार कहा गया है कि जहाँतक कानूनी स्थितिका सम्बन्ध है, यद्यपि ब्रिटिश सरकारने सन् १८८५ के तीसरे कानून[१]को जो सन् १८८६ में संशोधित कर दिया गया था, मान लिया था तथापि वह पुरानी बोअर-सरकारपर इसके विरोधमें जोर डालती ही रही। और इसका परिणाम यह हुआ कि वहाँ ब्रिटिश सत्ताकी जबतक स्थापना नहीं हुई तबतक वह कानून निःसत्त्व बना रहा। इसलिए ब्रिटिश भारतीयोंका कथन यह नहीं है कि ब्रिटिश सरकारने कभी कानूनको मंजूर ही नहीं किया, बल्कि यह है कि मंजूर कर लेनेपर भी ब्रिटिश एजेंटोंके बार-बारके विरोधके कारण उसपर कभी अमल नहीं किया गया । इसलिए वह कानून किताबमें रहा या नहीं, इसकी चिन्ता ब्रिटिश भारतीयोंने कभी नहीं की। वे तो इतना जानते हैं कि ब्रिटिश सरकारने उस कानूनसे उनकी रक्षा की और उन्हें उसके अमलसे बचा लिया । इसलिए यह कथन अक्षरश: सही है कि जिस कानूनका ब्रिटिश सरकारने कारगर विरोध किया था उसीपर वह अब अमल कर रही है। फिर, एक बात और याद रखने लायक है । इस प्रश्नपर दोनों सरकारोंके बीच जो पत्र-व्यवहार हुआ उसे अगर ध्यानके साथ पढ़ा जाये तो यह सिद्ध होगा कि ब्रिटिश सरकारने इस कानूनको अपनी अनुमति एक गलतफहमीमें आकर दी थी। यह हुआ ब्रिटिश भारतीयोंने अपनी बात बढ़ा-चढ़ा कर कही है, इस आरोपके जवाबमें ।

  1. देखिए खण्ड १, पृ४ ३९१ ।