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क्रूर अन्याय

है । परमश्रेष्ठके साथ हम भी यह आशा करते हैं कि बाजारोंमें ही रहनेका अपेक्षाकृत कठिन सवाल आगे चलकर अच्छी तरह हल हो जायेगा । और हम इसका केवल एक ही हल जानते हैं -- इसमें से उस घृणित जोर-जबरदस्तीको निकाल दीजिए, अच्छी और नजदीककी जगहें मुकर्रर कर दीजिए और भारतीयोंको सहयोग देनेके लिए निमन्त्रित कीजिए। आप देखेंगे कि वे खुद-ब-खुद बहुत बड़ी संख्यामें आकर्षित होकर यहाँ आ जायेंगे। जो हो, यह प्रयोग आजमाने लायक जरूर है। इसके लिए फिर किसी कानूनकी जरूरत नहीं होगी और सारा प्रश्न अपने आप हल हो जायेगा ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-८-१९०३

३२१. क्रूर अन्याय

प्रिटोरियाके श्री हाजी हबीब द्वारा प्रिटोरियाकी मस्जिदके बारेमें ट्रान्सवालकी सरकारको लिखा गया पत्र हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं। हमारे पाठकोंको शायद याद होगा कि जिस जमीनपर प्रिटोरियाकी यह सुन्दर मस्जिद खड़ी है, उसे मुस्लिम समाजने कोई पन्द्रह वर्ष पहले खरीदा था । अब इस जमीनकी कीमत बहुत बढ़ गई है। ज्यों ही वह जमीन खरीदी गई, ब्रिटिश भारतीयोंने तत्कालीन सरकारसे विनती की थी कि उसे मस्जिदके न्यासियोंके नामपर बदल देनेका विशेष अधिकार प्रदान किया जाये; परन्तु गणराज्यकी सरकारने निराशाजनक जवाब दिया। इसपर उन्होंने ब्रिटिश सरकारसे प्रार्थना की, परन्तु कोई फल नहीं निकला। लड़ाई शुरू होनेसे पहले सर कनिंघम ग्रीन केवल यह आशा दिला सके कि यदि लड़ाई शुरू हो गई तो लड़ाई समाप्त होनेपर ब्रिटिश सरकारके राजमें जमीनको न्यासियोंके नामपर बदलवा लेनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी। और आश्चर्य है कि सरकार इस क्षणतक उक्त सम्पत्तिको उनके नाम करनेका अधिकार देनेसे इनकार कर रही है । यह सच है क़ि उपनिवेश-सचिवने कहा है कि मुस्लिम समाजकी तरफसे वे खुद उसे अपने नामपर कराने को तैयार हैं। परन्तु चूंकि सम्पत्ति धार्मिक कार्यके लिए प्रदत्त हैं, उनका धर्म आज्ञा नहीं देता कि वह उपनिवेश सचिवके नामपर की जा सके। हमारे विचारमें परिस्थिति यह है । श्री हाजी हबीबका प्रस्ताव है कि जिस जमीनपर मस्जिद खड़ी है उसे सरकार उन मुहल्लों अथवा सड़कोंमें घोषित कर दे जहाँ भारतीय रह सकते हैं। हम समझते हैं यह सुझाव बिलकुल उपयुक्त है और इससे समस्या हल हो सकती है । परन्तु हमें ज्ञात हुआ है कि सरकारने यह विनती नामंजूर कर दी है।

निःसन्देह स्थिति गम्भीर है। मुस्लिम समाजको अधिकार है कि दूसरे समाजोंकी भाँति उनकी धार्मिक भावनाओंका भी आदर हो । परन्तु सम्भव है कि किसी दिन यह जायदाद उनके हाथसे निकल जाये और नमाज पढ़नेके लिए उनके पास मस्जिद ही न रहे। जो ब्रिटिश सरकार धर्मोकी रक्षाका आश्वासन देती है उसीके झण्डेके नीचे रहनेवालोंकी हालत विचित्र है । इसलिए हमारे मनमें सवाल आता है कि ट्रान्सवालमें भारतीयोंका यह क्या हाल होने जा रहा है ? क्या प्रिटोरियामें ब्रिटिश संविधानकी कतर-ब्योंत होनेवाली है, या अन्तमें न्यायकी विजय होगी ?

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-८-१९०३