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३२२. महँगी छूट

सरकारी सूचना नम्बर ३५६, अर्थात् बाजार-सम्बन्धी सूचनाकी उपधारा ४ के अनुसार छूट मिलनेसे पहले एशियाइयोंको जो फार्म भरना पड़ता है उसे हम अन्यत्र छाप रहे हैं। इसमें बीस प्रश्नोंके जवाब देने होते हैं, जिनमें से कुछ निर्दोष हैं, कुछ हँसीके लायक हैं और कुछ गहरीसे-गहरी चोट पहुँचानेवाले हैं। यह महँगी छूट मिलनेसे पहले अर्जदारको बताना पड़ता है कि : उसके पास कितने आदमी नौकर हैं? क्या वे एशियाई हैं? पाखानोंकी हालत कैसी है? क्या उसकी दूकानमें रातको लोग सोते हैं? अगर हाँ तो रहनेके कमरोंमें कितने आदमी सोते हैं? क्या रातके और दिनके कमरे अलग-अलग है? क्या वहाँ रहनेवाले लोग जमीनपर सोते हैं? वे साबुनका व्यवहार करते हैं? वगैरह। हम जानना चाहते हैं कि जब एशियाइयोंको अलग बस्तियोंमें रहनेके लिए भेज दिया जायेगा तब क्या साधारण स्वच्छता, रातके और दिनके कमरोंका भेद, दूकानोंके अन्दर सोनेकी मनाही, पाखानोंकी सफाई इत्यादि बातोंका विचार छोड़ दिया जायेगा? यदि केवल छूट देनेके लिए इन बातोंकी जाँच आवश्यक है, तब या तो सरकार मान लेती है कि बस्तियोंके निवासियोंका रहन-सहन ऐसा आदर्श होगा कि उनपर निगरानी रखनेकी कोई जरूरत नहीं होगी, या अगर वे गन्दे रहना पसन्द करेंगे तो उन्हें गन्दगीमें सड़ने दिया जायेगा। एक सीधा-सा सवाल हमारे दिमागमें आ रहा है कि क्या सरकारने १८८५ के तीसरे कानूनपर कभी विचार करनेका कष्ट किया है? और क्या वह जानती है कि यदि एशियाई लोग किसीके यहाँ नौकर हैं तो वे बगैर ऐसी छूटके शहरमें रह सकते हैं? फिर उन्हें किसी अधिकारीको इस बातका सन्तोष दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि वे साबुनका व्यवहार करते हैं या नहीं, अथवा उनके नहाने-धोनेके लिए भी कहीं कोई प्रबन्ध है या नहीं। हम कानूनकी प्रत्यक्ष धारा ही उद्धृत करते हैं; वह कहती है : "सरकारको यह निश्चय करनेका अधिकार होगा कि वे किन सड़कों, मुहल्लों या बस्तियोंमें रहें। जो नौकर अपने मालिकोंके साथ रहेंगे उनपर यह धारा लागू नहीं होगी।" इसका अर्थ यह हुआ कि एशियाई नौकरोंको तो इन सवालोंका जवाब देनेका अपमान नहीं सहना होगा; परन्तु जिन्हें सरकार प्रतिष्ठित समझती है उन्हें इस परीक्षामें से गुजरना होगा और छूट मिलनेसे पहले उन्हें सरकारी अधिकारियोंको संतुष्ट करना होगा। और यह है वह छूट जिसपर लॉर्ड मिलनरने श्री चेम्बरलेनको भेजे अपने खरीतेमें इतना जोर दिया है। हम जानते हैं कि प्रत्यक्ष सूचनामें जो लिखा है, छूटकी धाराका उससे कहीं अधिक व्यापक अर्थ लॉर्ड मिलनरने किया है। तब, अगर ट्रान्सवालमें रहनेवाले हमारे देशभाई यह कहते ही चले जाते हैं कि ट्रान्सवालके कानूनका आजकल जितनी सख्तीसे अमल हो रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ था, तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? हम तो यही आशा करते हैं कि कोई भी आत्मसम्मानी ब्रिटिश भारतीय अपने आपको इस तरह नहीं भूल जायेगा कि शहरकी सीमामें रहने की सुविधाके लिए इस फार्मको भरने बैठ जाये।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-८-१९०३