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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

भी आया । परन्तु वह क्या करके आया है इसकी कोई खबर हमें नहीं मिल सकी है । यहाँकी सरकारने इस आशयका कोई वक्तव्य भी प्रकाशित नहीं किया है कि मजदूरोंको जबरदस्ती भारत लौटानेके सिद्धान्तको भारत सरकारने मंजूर कर लिया है, जैसा कि श्री चेम्बरलेनने बताया है। फिर भी हमने ऊपर जो भाषण उद्धृत किया है वह बिलकुल स्पष्ट है, अर्थात् यह कि शर्तकी अवधि पूरी हो जानेपर गिरमिटिया मजदूरोंको भारत लौटना ही होगा। उनके लौटानेके लिए एक अत्यन्त कारगर उपाय काममें लिया गया है और वह है कि उनकी शेष मजदूरी उन्हें भारत लौटनेपर दी जाये । सो, ट्रान्सवालका विकास अधिकसे-अधिक तेज गतिसे करनेका उपाय यह होगा कि भारत सरकार ट्रान्सवालके लिए भी वही बात मंजूर कर ले जो कहा जाता है, उसने नेटालके लिए मंजूर कर ली है। श्री चेम्बरलेनके भाषणका उपर्युक्त सार यदि सही है तो उनके प्रति उचित आदर रखते हुए हम तो इस विषयमें यही कह सकते हैं कि उपनिवेशको लाभ पहुँचानेके लिए भारतीय मजदूरको बेच दिया गया है और इस बीसवीं सदीमें दक्षिण आफ्रिकामें एक नये रूपमें गुलामीकी प्रथाको पुनर्जीवित किया जा रहा है --- सो भी ब्रिटिश सरकारकी मंजूरीसे और उन लोगोंके नामपर जिन्होंने गुलामोंकी मुक्तिके लिए न जाने कितना धन और खून बहाया है । इस प्रकार भारतीय मजदूरों और उनके मालिकोंके बीचकी साझेदारी इस तरहकी होगी जैसी कि शेर और भेड़के बीच होती है, अर्थात् एक पक्षको लाभ ही लाभ मिलेगा और दूसरे पक्षको केवल हानि-ही-हानि उठानी होगी। इन घटनाओंके प्रकाशमें तो ट्रान्सवालके श्वेत-संघ (व्हाइट लीग) के सभ्योंने जो रुख ग्रहण किया था उसकी हमें अब तारीफ करनी पड़ेगी । उनकी बात आखिर समझमें आने जैसी तो है। सचमुच लॉर्ड मिलनरके प्रस्तावकी अपेक्षा उनका रुख न्यायके अधिक निकट है। वे तो सीधे सच्चे शब्दोंमें कह देते हैं कि पूर्व की जातियोंको हम दक्षिण आफ्रिकामें नहीं आने देंगे। परन्तु लॉर्ड मिलनर भारतीयोंके श्रमका लाभ उठाकर भी उन्हें यहाँ बसनेके अधिकारसे वंचित रखना चाहते हैं। दोनोंकी कोई तुलना नहीं हो सकती । एक पक्षका इनकार केवल साम्राज्यकी दृष्टिसे अन्यायपूर्ण है; क्योंकि अगर दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश साम्राज्यके अन्दर नहीं होता तो दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीयोंको उनके इस रुखपर कोई दोष नहीं दे सकता था कि वे इस महान् भूखण्डके अन्दर बसनेका लाभ अपने सिवा अन्य किसीको नहीं उठाने देना चाहते । परन्तु लॉर्ड मिलनरकी प्रस्तावित शर्तोंपर मजदूरोंका लाया जाना तो साम्राज्यकी दृष्टिके अलावा भी अन्यायपूर्ण है, अर्थात् वह हर दृष्टिसे अनुचित है। एकमें अगर साम्राज्यकी भावनापर ही प्रहार होता है तो दूसरेमें समस्त मानवताकी भावनापर। जैसा कि स्वर्गीय माननीय श्री हैरी एस्कम्बने कहा था : "हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि अपराधको छोड़कर किसी अन्य कारणसे मनुष्यको अपने देशसे बाहर जबरदस्ती भेजा जा सकता है।" बेचारे भारतीयोंने ऐसा कौन-सा अपराध किया है जिसके कारण उन्हें देश-निकालेकी यह सजा दी जा रही है ? हाँ, अपने पूर्वजोंसे रंगदार चमड़ी प्राप्त करना ही दक्षिण आफ्रिकामें अगर अपराध समझा जाय तो बात दूसरी है ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३-९-१९०३