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प्रार्थनापत्र : चेम्बरलेनको


जैसी कि निकायने की है, तो हमारे हाथमें इलाज है ही। (नेटाल विटनेस, २६ नवम्बर, १८९८)।

ऊपरके उद्धरणोंमें जिन लोगोंको अवांछनीय कहा गया है वे, निस्सन्देह, डंडीके ब्रिटिश भारतीय व्यापारी है। डंडीका स्थानिक निकाय जो नीति बरतना चाहता है उसे इन उद्धरणोंमें स्पष्ट रूपसे स्वीकार कर लिया गया है। कानूनने अपील सुनने का अधिकार जिस संस्थाको दिया है उसकी ओरसे परवाना-अधिकारीको हिदायतें मिल चुकी है -- और आगे भी मिलेंगीकि उसे क्या करना है। और, इस तरह, दो न्यायाधिकरणों-- अर्थात् परवाना-अधिकारी और नगर-परिषद या स्थानिक निकायके, जहाँ जो हो, सामने कानूनके मंशाके अनुसार पीड़ित पक्षोंको अपना मामला पेश करने का जो अधिकार था, वह छिन जायेगा। प्रार्थियोंकी नजरमें जो उदाहरण आये हैं उनमें से ये केवल थोड़े-से है। इनसे बिलकुल साफ मालूम होता है कि यदि विभिन्न नगर-परिषदों और स्थानिक निकायोंपर अंकुश न लगाया गया तो वे किस नीतिका अनुसरण करेंगे।

प्राथियोंको यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि अबतक दूसरी नगर-परिषदों और स्थानिक निकायोंने ऐसी कोई इच्छा नहीं दिखाई है कि वे जुल्मी तरीकेपर व्यवहार करेंगे; हालाँकि वहाँ भी नये परवाने प्राप्त कर लेना लगभग असम्भव है। यहाँ तक कि पुराने जमे हुए भारतीयोंको भी नये परवाने नहीं मिल सकते, फिर, कानूनके अनुसार जो अधिकार -प्रार्थी तो कहना चाहते थे, अत्याचारी अधिकार-उन्हें दिया गया है वह मौजूद है ही, और इसका कोई ठिकाना नहीं कि वे डर्बन, न्यूकैसिल और डंडी द्वारा पेश किये गये उदाहरणोंका अनुकरण नहीं करेंगे।

जिन सॉलिसिटरोंका इस कानूनके अमलसे कुछ सम्बन्ध रहा है उनके विचार जाननेकी दृष्टिसे उन्हें एक पत्र लिख कर निवेदन किया गया था कि वे कानूनके अमलके सम्बन्धमें अपने अनुभव बतानेकी कृपा करें। यह पत्र चार सॉलिसिटरोंके पास भेजा गया था। उनमें से तीनने अपने उत्तर भेजे हैं, जो इसके साथ नत्थी है (परिशिष्ट घ, ङ, च)। श्री लॉटन, जिन्होंने न्यूकैसिल, चीनी व्यापारी और उपर्युक्त सोमनाथ महाराजके मामलों की पैरवी की थी, कहते हैं :

मैं विक्रेता परवाना अधिनियमको बहुत लज्जाजनक और बेईमानी-भरा विधान मानता हूँ। बेईमानी-भरा और लज्जाजनक-- क्योंकि इस मंशाको जरा भी छिपाया नहीं गया कि उसे भारतीयोंपर, और सिर्फ उनपर ही लागू किया जायेगा। वास्तवमें वह स्वीकार तो संसदके एक ऐसे अधिवेशनमें किया गया, जो भारतीय-विरोधी समुदाय को तुष्ट करनेके लिए साधारण समयसे एक महीने पहले ही कर लिया गया था। फिर भी उपनिवेश-मन्त्रीकी स्वीकृति प्राप्त करनेके लिए उसे रूप ऐसा दिया गया, मानो वह सबपर लागू होता हो।

अधिनियमका असर है-- व्यापारके परवाने देने या न देनेका अधिकार भारतीय व्यापारियोंके माने हुए शत्रुओंके हाथोंमें सौंप देना। नतीजा वही है, जिसकी अपेक्षा की जा सकती थी। और हम सब जो-कुछ देखते हैं उससे लज्जित है, भले ही हम इसे मंजूर करें या न करें।

१. यह उपलब्ध नहीं है।