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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

है कि अगर सर्वोच्च न्यायालयको अपील सुननेका अधिकार दिया गया होता तो कानून कारगर न होता। उस संस्थासे इतनी अपेक्षा तो निश्चय ही की जा सकती थी कि वह साधारण समझदारीसे कामलेगी।.. . अपना राज्य प्रातिनिधिक संस्थाओंके द्वारा स्वयं चलानेवाले समाजमें इस सिद्धान्तके प्रतिपादित किये जानेकी अपेक्षा कि नागरिकके अधिकारोंपर आघात करनेवाले किसी भी मामले में सर्वोच्च न्यायाधिकारीको शरण जानेके मार्गको जान-मानकर बन्द कर दिया जाये, बहुत बेहतर तो यह होता कि एक न दो मामलोंमें बादवाली बात (म्पूनिसिपैलिटियोंको इच्छा) को दाब दिया जाता।

आपके प्राथियोंको बहुत भय है कि उपनिवेशफी सरकार प्राथियोंको मदद करनेवाली नहीं है। इस कानूनके अनुसार परवाने प्राप्त करने और परवाना-अधिकारीके निर्णयके खिलाफ अपील करने के तरीकेको नियन्त्रित करने के लिए जो नियम (परिशिष्ट झ) स्वीकार किये गये हैं वे, प्राथियोंकी नम्र रायमें, ऐसे ढंगसे बनाये गये हैं कि उनसे परवाना-अधिकारी और अपील- संस्थाको दिये गये मनमाने अधिकार दृढ़ होते हैं। यहाँ यह बता देना उचित ही होगा कि वे सितम्बर १८९७ में ही स्वीकार कर लिये गये थे। तथापि प्राथियोंको आशा थी कि चूंकि उपनिवेशको असाधारण सख्ती करने का अधिकार दे दिया गया है, इसलिए अब भारतीय समाजको कुछ आरामकी सांस लेने दी जायेगी। और यह भी कि, सख्तीके इक्के-दुक्के मामलोंमें वे यहीं राहत प्राप्त कर सकेंगे -उन्हें सम्राज्ञी-सरकार के पास फरियाद करनेकी जरूरत न होगी। भूतपूर्व प्रधानमन्त्रीने लन्दनसे लौटनेपर जो भाषण दिया था उससे हमारा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया था। उन्होंने आशा प्रकट की थी कि इन अधिकारोंका अमल बहुत सोच-समझकर और नरमीके साथ किया जायेगा। दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं। इसीलिए प्रार्थी निवेदन करते हैं कि नियमोंमें जो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है कि परवाना- अधिकारीको अपने निर्णयके कारण अर्जदारको बताने चाहिए, उससे बहुत अनर्थ हुआ है। श्री कॉलिन्सको भी ऐसा ही लगा है (परिशिष्ट क)।

प्राथियोंको सबसे ज्यादा भय तो कमिक उच्छेदकी उस प्रक्रियासे है, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। यहाँ मौजूद लोग उस प्रक्रियाको भलीभाँति समझते हैं। इस वर्ष अनेक छोटे-छोटे दुकानदारोंको उखाड़ दिया गया है। कुछको तो इसलिए उखाड़ा गया कि उनका कारो- बार मुश्किलसे १० पौंड माहवार है; वे नकद खरीदते हैं और नकद ही बेचते हैं। इसलिए वे हिसाब-किताब नहीं रख सके। आखिर, छोटे-छोटे यूरोपीय दूकानदार भी तो प्रायः यही करते हैं। कुछ अन्य लोगोंको इसलिए उखाड़ दिया गया कि वे सफाई-दारोगाकी शर्तोको पूरा नहीं कर सके । इन शोंका सम्बन्ध मकानोंकी सफाईसे नहीं, बल्कि उनकी बनावटसे था। अगर परवाना अधिकारी साल-ब-साल कुछ छोटे-छोटे भारतीय दूकानदारोंको मिटाते रहे, तो पर- वाने देनेसे इनकार किये बिना ही बड़ी-बड़ी दूकानोंको बैठा देने के लिए बहुत वर्षोंकी जरूरत नहीं होगी। उदाहरणके लिए, इस प्रार्थनापत्रपर सबसे पहले हस्ताक्षर करनेवाले श्री मुहम्मद कासिम कमरुद्दीन ऐंड कम्पनीका नेटालके लगभग ४०० भारतीय दूकानदारों और फेरीवालों- पर २५,००० पौंडसे ज्यादाका कर्ज फैला हुआ है। डर्बनमें उनकी जायदाद भी है, जो भारतीय दूकानदारोंने किरायेपर ले रखी है। यदि इन दुकानदारोंके आठवें हिस्सेको भी परवाने देनेसे इनकार कर दिया गया तो इस पेढ़ीकी स्थिति बिगड़ जायेगी। कुछ क्षति तो उसे पहुँच ही चुकी है। यह क्षति श्री दादा उस्मानको परवाना न दिया जानेके कारण हुई है। (इसका उल्लेख अपर किया जा चुका है।) श्री अमद जीवाकी जायदाद एस्टकोर्ट, डंडी, न्यूकैसिल और डर्बनमें है। वह करीब-करीब पूरी की पूरी भारतीय दूकानदारोंने किरायेपर ले रखी है।