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प्रार्थनापत्र : चेम्बरलेनको

और उसमें से अधिकांशका उपयोग किसी दूसरे कामके लिए नहीं हो सकता। इनमें से अगर कुछ दूकानें भी बन्द हो गई तो बरबादी हो जायेगी। ये तो सिर्फ नमूने के उदाहरण हैं। ऐसे उदाहरण और भी बहुतसे दिये जा सकते हैं।

प्रार्थियोंको बचपनसे यह विश्वास करना सिखाया गया है कि सम्राज्ञीके सब राज्योंमें जान और मालकी पूरी सुरक्षा है। जहाँतक मालकी सुरक्षाका सम्बन्ध है, इस विश्वासको इस उपनिवेशमें जबरदस्त धक्का पहुँचा है। क्योंकि आपके प्रार्थियोंका नम्र निवेदन है, किसीकी जायदादका एकमात्र सम्भव उपयोगके साधनसे वंचित किया जाना उस जायदादके बिलकुल छीन लिये जानेसे कम नहीं है।

कहा गया है कि स्वशासित उपनिवेशोंमें सम्राज्ञी-सरकारका हस्तक्षेप करनेका अधिकार बहुत सीमित है। आपके प्रार्थी तो मानते हैं कि वह कितना भी सीमित क्यों न हो, ट्रान्सवालमें हस्तक्षेप करने के लिए जितना है, स्वशासित उपनिवेशोंमें हस्तक्षेप करनेके लिए उससे कम नहीं है। दुर्भाग्यवश प्रार्थियोंको एक ऐसे कानूनका सामना करना पड़ रहा है, जिसे सम्राज्ञी स्वीकृति प्रदान कर चुकी है। परन्तु प्राथियोंका खयाल है कि जब सम्राज्ञीको कानूनको अस्वीकार करने के अधिकारका प्रयोग न करने की सलाह दी गई थी, उस समय यह नहीं सोचा गया था कि उस कानून द्वारा दिये गये अधिकारोंका इतना दुरुपयोग किया जायेगा, जितना कि, निवेदन है, किया गया है।

प्रार्थी अत्यन्त आदरके साथ निवेदन करते हैं कि ऊपर जो-कुछ कहा गया है वह इसके लिए काफी होगा कि सम्राज्ञी-सरकार उपनिवेशकी सरकारको एक जोरदार उलहना और परामर्श दे कि वह कानूनमें ऐसे संशोधन करे जिनसे ऊपर वर्णन किये हुए अन्यायकी पुनरावृत्ति असम्भव हो जाये और वह कानून उदात्त ब्रिटिश परम्पराओंके अनुरूप भी बन जाये।

परन्तु, यह सम्भव न हो तो प्रार्थी नम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि : सभी मानते हैं कि उपनिवेशकी प्रगतिके लिए भारतीय मजदूर अनिवार्य हैं। उनके उपयोगके जिस विशेषाधिकारका उपभोग उपनिवेश कर रहा है, उसका उपभोग उसे अब न करने दिया जाये। टाइम्स आफ़ नेटाल ने, ऊपर दिये हुए उद्धरणमें आशंका प्रकट की ही है कि यदि परवाना-अधिकारियोंने अन्याय किया तो भारतसे गिरमिटिया मजदूरोंको भेजना बन्द कर दिया जायेगा। टाइम्स (लन्दन), ईस्ट इंडिया असोसिएशन, सर लेपेल ग्रिफिन[१], डॉ॰ कस्ट, भारतकी प्रमुख संस्थाओं और सारेके सारे भारतीय और आंग्ल-भारतीय पत्रोंने पहले ही यह उपाय सुझा रखा है। परन्तु अबतक, मालूम होता है, सम्राज्ञी-सरकारने उसे स्वीकार करनेकी कृपा नहीं की। प्रार्थियोंका नम्र निवेदन है कि जो दुःखड़े सही माने जा चुके हैं उनको अगर दूर नहीं किया जाता, तो इस तरह मजदूर भेजना बन्द करनेके पक्षमें इससे ज्यादा जोरदार कारण और क्या हो सकते हैं?

प्रार्थी जानते नहीं कि भारतीय व्यापारियोंके लिए आगामी वर्षका आरम्भ कैसे होगा। परन्तु हर दुकानदार चिन्तामग्न और बेचैन हो रहा है। दुविधा भयंकर है। बड़ी-बड़ी पेढ़ियोंको डर हो गया है कि उनके ग्राहकों (छोटे दुकानदारों) को परवाने नहीं दिये जायेंगे। इसके अलावा, उनको परवाना-अधिकारियोंपर अंकुश लगवानेकी जो एक मात्र आशा थी वह भी सम्राज्ञीकी न्याय-परिषदने उनसे हर ली है। इन कारणोंसे वे हताश हो गई हैं और अपना माल निकालने में हिचक रही हैं।

 
  1. १८३८-१९०८; भारतीय नागरिक सेवाके एक हाकिम और प्रशासक; १८९१ से लेकर मृत्युतक पूर्व भारत संघ (ईस्ट इंडिया असोसिएशन) के अध्यक्ष।