श्रीमान् मो० फ० गांधी
एडवोकेट
प्रिय महोदय,
विक्रेता-परवाना अधिनियमफी बाबत आपके इसी माहकी २३ तारीखके पत्रके उत्तर में :
हम इस प्रश्नके राजनीतिक पहलूपर कुछ न कहना ही पसन्द करते हैं।
हमारा मत है कि परवाना-अधिकारी नगर-परिषदों या स्थानिक निकायोंके - जहां जैसा हो-स्थायी कर्मचारी-मण्डलके बाहरसे नियुक्त किया जाना चाहिए। उसके निर्णयके विरुद्ध नगर-परिषदमें और नगर-परिषदके निर्णयके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालयमें अपीलकी व्यवस्था होनी चाहिए ।
हम समझते हैं कि अधिनियमके अमलमें आनेके कारण जिन मकान-मालिकोंने अपने किरायेदार खोये हैं उन्हें मुआविजा दिया जाना चाहिए ।
हम समझते हैं कि कम महत्त्वकी अनेक बात ऐसी हैं, जिनमें सुधार होना चाहिए। परन्तु, हमारी रायमें, प्रस्तुत अधिनियमका मुख्य दोष यह है कि उसमें नगर-परिषदके निर्णयकी अपील करनेकी कोई गुंजाइश नहीं रखी गई। इससे परवानों के अर्जेदारोंपर अन्याय हुआ है और आगे भी हो सकता है ।
श्रीमान् मो० क० गांधी
डवेन प्रिय
महोदय,
परवाना-अधिनियम १८/९७ की बावत हमारी भाजकी मुलाकातके सम्बन्धमें मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि यद्यपि उस अधिनियम में ऐसा कहा नहीं गया; फिर भी, मेरे अनुभवके अनुसार उसका मंशा केवल भारतीयों और चीनियोंपर लागू होनेका है। कुछ हो, मुझे लगता तो ऐसा ही है।
मैंने परवाना-अधिकारीको नये परवानों के लिए की आजया भेजी हैं, जो बिना कारण बताये खारिज कर दी गई हैं। और नगर-परिषदसे अपील करनेपर मैंने हमेशा ही देखा है कि उस संस्थाने परवाना-अधिकारीले उसकी खारिजीके कारण पूछे बिना ही उसके निर्णयको बहाल कर दिया है ।
यूरोपीयोंको कितने परवाने नामंजूर किये गये, उनकी संख्या जाननेकी मैने कोशिश नहीं की। परन्तु मुझे लगता है, वे सिर्फ उन लोगोंको नहीं दिये गये, जिनके पास, उनके आचरण आदिके कारण, परवाना होना उचित नहीं अँचता था।
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