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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

पुनश्च : अधिनियमका सबसे अन्यायपूर्ण अंश वह है, जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालयमें नगर-परिषदके निर्णयकी अपील नहीं की जा सकती।

सी० ए० आर० एल०
 
परिशिष्ट ज

सेवामें

सम्पादक

टाइम्स ऑफ़ नेटाल

महोदय,

इसी माहकी १६ तारीखके टाइम्स ऑफ़ नेटाल में प्रकाशित मेरे "ऐन इम्पाटेंट डिसिजन" [एक महत्त्वपूर्ण निर्णय ] शीर्षक पत्रपर ध्यान देने और उसके उत्तरमें अपना मन्तव्य व्यक्त करने के लिए मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ। आप कहते हैं : “जहाँतक कसाइयोंके मण्डलका सम्बन्ध है, इतना कह देना जरूरी है कि, उसके जरिये रहन-सहनका खर्च बहुत बढ़ा दिया गया है और, हमें बताया गया है, मांस तो समाजके गरीब वर्गों के वित्त के बाहरफी चीज बन गया है।"

मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ । इस प्रकार की तमाम गुटबन्दिया नैतिक दृष्टिले गलत हैं, और खतरनाक हैं; क्योंकि इनसे उन थोड़े-से लोगोंको तो लाभ पहुँचता है, परन्तु आम जनताको हानि होती है । आगे आप कहते हैं : “ दूसरी ओर, भारतीय व्यापारी भी खतरनाक बन गये हैं, क्योंकि वे यूरोपीयोंकी अपेक्षा बहुत सस्तेमें गुजर कर सकते हैं और इसलिए वे यूरोपीयोंको व्यापारसे और उपनिवेशसे भी बाहर खदेड़े दे रहे हैं।" यह तो हमारा एक स्वतःसिद्ध तत्त्व है कि स्पर्धा व्यापारकी जान है । और यह मानते हुए कि सभी स्पर्धा खतरनाक है, मैं निवेदन करता हूँ कि भारतीय व्यापारी उसी रूपमें खतरनाफ नहीं हैं, जिस रूपमें कसाइयोंका मण्डल है।

भारतीय दूकानदार, दूकानदारोंमें ही जोरदार स्पर्धा उत्पन्न करके, जीवनकी तमाम जरूरी चीज़ोंकी कीमतें वटा रहे हैं। दूसरे शब्दोंमें, वे थोड़े-से लोगोंको हानि पहुँचाकर बहुत-से लोगोंका लाभ कर रहे हैं, जो कसाइयों के मण्डलके ठीक उलटा है ।

मुझे भली भाँति याद है, बीस वर्ष पूर्व जब मैं उपनिवेशमें आया था उस समय हमें अवसे बीस फीसदी ज्यादा फायदा होता था। उस समय थोड़े-से लोगोंको फायदा होता था और बहुत-से हानि सहते थे। परन्तु स्पर्धाने, और खास तौरसे भारतीयोंकी स्पर्धाने, सारे देशमें भावोंको गिरा दिया है । और अब बहुत-से लोगोंको लाभ होता है, थोड़से लोगोंको हानि । यही तो होना भी चाहिए ।

आप इन लोगोंको खदेड़ दीजिए तो आम जनता फिर कष्टोंमें पड़ जायेगी- उसे अपनी जरूरतकी तमाम चीजों के बहुत महँगे भाव चुकाने होंगे।

मुझे याद है, लगभग सोलह वर्ष पूर्व एक देहाती कस्बेके आदमीसे मेरा झगड़ा हो गया था। कारण यह था कि मैंने दूकानदारोंके एक ऐसे मण्डलमें शामिल होनेसे इनकार कर दिया था, जो आटेके फी बोरेपर ५ शिलिंग मुनाफा वसूल करना चाहता था । उन दिनों भले ही जनताको हानि पहुँचानेवाली, परन्तु दूकानदारोंकी थैलियाँ भरनेवाली ऐसी गुटबन्दियों चलाई जा सकती हों, परन्तु आज ये बिलकुल असम्भव होंगी । और यदि आप मांसके व्यापारमें वैसी ही स्पर्धा जारी करा सकें तो आज आपको मांसके भावोंके बार में जो शिकायतें सुननेक मिलती हैं, वे शीघ्र ही कम हो जायेगी।

आप शिकायत करते मालूम होते हैं कि ये लोग सस्तेमें गुजारा कर सकते हैं । हाँ, वे कर सकते हैं सस्तेमें गुजारा-वे दारू नहीं पीते, अधिकारियोंको तकलीफ़ नहीं देते और, सचमुच, कानूनका पालन करनेवाले प्रजाजन हैं। और अगर वे सस्तेमें गुजारा करके मालको सस्ते भावों बेच सकते हैं तो फायदा, जरूर ही, जनताका है।


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