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रोडेशियाके भारतीय व्यापारी

भी भाग लिया है। डर्बनमें १८९७ में भीड़ने जो कानून-विरोधी कृत्य किये थे, उनकी ओर श्री चेम्बरलेनने ध्यान नहीं दिया था। उससे, मुझे अन्देशा है, गोरे बाशिन्दोंका यह खयाल हो गया कि वे भारतीयोंके साथ जैसा चाहें वैसा बरताव कर सकते हैं। डर्बनके मामले में भीड़को दण्ड देनेकी कोई जरूरत नहीं समझी गई थी। मगर यहाँ रहनेवाले हम लोग महसूस करते हैं कि यदि श्री चेम्बरलेन सारी घटनापर नापसन्दगी जाहिर करते हुए एक पत्र भेज देते तो उसका बहुत असर होता।

आपका विश्वासपात्र,
 
मो०क० गांधी
 
सहपत्र
उमतली, रोडेशिया
 
जनवरी २२, १८९९
 

महाशयो,

हम निम्नलिखित परिस्थितियोंकी ओर आपका ध्यान आकर्षित करते हैं:

हम बैरा और मेसीक्वीस-दोनों स्थानों में व्यापार करते आ रहे हैं । गत मार्चमें हमने रोडेशियाके उपतली नामक स्थानमें व्यापार करनेके लिए परवाने की अर्जी दी थी। वह अप्रैलमें मंजूर हो गई थी। इस पर हमने वहाँ एक वस्तु-भण्डार (टोर) का निर्माण किया । परन्तु हमने देखा कि यूरोपीय व्यापारी बड़े क्षुब्ध हो उठे हैं। उन्होंने एक सभा करके ब्रिटिश भारतीय प्रजाको परवाने देनेका विरोध किया, क्योंकि वे भारतीयोंको अवांछनीय समझते थे । परन्तु उच्चायुक्त (हाई कमिश्नर) ने उनका समर्थन नहीं किया ।

हमने पिछले ७ दिसम्बरतक शान्तिपूर्वक व्यापार किया था, जब कि हमारे एक देशवासी (वैराके एक व्यापारी) ने भी परवाने की अर्जी दी । उसे परवाना मिल गया। इससे उमतलीके व्यापारी फिर उत्तेजित हो उठे। उन्होंने इस विषयको व्यापार-संघ (चेम्बर ऑफ कॉमर्स) के सामने पेश किया और उससे अनुरोध किया कि वह इस विषयको उठाये और एशियाइयोंको परवाने देनेका विरोध करे । उनकी बैठकोंकी कार्रवाइयाँ स्थानिक पत्रों में प्रकाशित हुई और उनका जनताके मनपर बड़ा गम्भीर असर पड़ा। फिर भी सरकारने आन्दोलनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया । बादमें, ४ जनवरी १८९९ की रातको लाभग ९ बजे शहरके यूरोपीय व्यापारियोंने शान्ति स्थापित करनेके लिए नियुक्त मजिस्ट्रेटों और स्थानीय स्वयंसेवक संघके अफसरों के नेतृत्व में कोई डेढ़ सौ लोगों की भीड़ बनाकर वस्तु-भण्डारपर हमला कर दिया । वे वस्तु-भण्डारको तोड़-फोड़कर उसमें घुस गये । उनका रुख कितना हिंसात्मक और उनकी कार्रवाई कितनी गैरकानूनी थी, यह देखकर हम डर गये । परन्तु भाग्यवश हमारे सामान और आदमियों के पोर्तुगीज़ सीमामें हटा दिये जानेके पहले ही इन्स्पेक्टर बर्च कुछ सिपाहियों के साथ वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने आतताइयोंको चेतावनी दी कि उनका काम बिलकुल गैरकानूनी है, और उनके गिरोहदारोंपर मुकदमा चलाया जायेगा ।

पुलिसवाले सिर्फ दस थे, इसलिए आक्रमणकारियोंने उनका करीब-करीब सामना ही किया । इन्स्पेक्टर को हिंसाका भय हुआ, जिससे सम्पत्तिकी हानि जरूर ही होती, और शायद प्राणोंकी भी । इसलिए उसने सुझाव दिया कि हमें वहाँसे हटनेके लिए तैयारीका समय दिया जाये । बहुत वाद-विवादके बाद यह मान लिया गया। भीड़के बरखास्त होते ही इन्स्पेक्टरने हमें सूचित किया कि हमें जानेके बार में सोचना भी नहीं है; उसने तो

१. देखिए. जिल्द २, पृ० २४६ । जनवरी १२ को डर्बममें जहाजसे उतरते समय गांधीजीपर आक्रमण किया गया था। श्री वेडरबर्न द्वारा फरवरी ५, १८९७को संसद्में इस बारे में प्रश्न पूछा जानेपर उपनिवेश-मन्त्रीने उत्तर दिया कि "लोग विना किसी विरोधके जहाजसे उतरे थे। केवल एक व्यक्तिपर आक्रमण किया गया था लेकिन उसे कोई गहरी चोट नहीं आई ।" (वेडरबर्न के लिए देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९६)।

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