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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

अन्दर ही उन्हें अपने माल की फेरी लगाने नहीं दी जाती। इसकी प्रतिक्रिया भारतीय पेढ़ियों- पर होती है, जो इन फेरीवालोंपर निर्भर करती हैं।

केप-सरकार, ऐसा दीखता है, मतवाली नहीं हुई। परन्तु वहाँ सरकारसे यह मांग करनेका आन्दोलन चल रहा है कि केप-प्रदेशके किसी भी बन्दरगाहमें किसी भी भारतीयका उतरना निषिद्ध कर दिया जाये। कुछ दिन पहले पोर्ट एलिज़ाबेथमें एक सभा की गई थी। उसमें कम- ज्यादा हिंसात्मक ढंगसे भाषण किये गये थे। कुछ भाषणकर्ताओंने तो यहाँतक कह डाला कि अगर सरकार पोर्ट एलिजावेथकी जनताको इच्छा पूरी नहीं करेगी तो उसे कानून अपने हाथोंमें ले लेना होगा। नेटाल-सरकार, स्पष्टतः, उत्सुक है कि वह इस झूठे आतंकके चपेटेमें न आये। परन्तु, डर है कि वह बहुत दिनोंतक अपना धैर्य कायम नहीं रख सकेगी।

नेटालमें दो परस्पर-विरोधी हित काम कर रहे हैं। एक ओर तो खेतों और बागोंके मालिक है जो, सारे उपनिवेशमें पूरी तरह भारतीय गिरमिटिया मजदूरोंपर निर्भर करते हैं और ऐसे मजदूरोंकी सतत उपलब्धिके बिना अपना काम नहीं चला सकते। दूसरी ओर, डर्बन तथा मैरित्सबर्ग जैसे कस्बों और नगरोंके लोग हैं, जो ऐसे किन्हीं स्वार्थोंकी जोखिम न होनेके कारण, भारतीयोंके आगमनका पूर्ण निषेध करा देनेमें खुश होंगे- चाहे वे भारतीय गिरमिटिया हों, चाहे अन्य । इस बातपर ध्यान देना बड़ा दिलचस्प है कि सारे विवादमें दक्षिण आफ्रिकाके लोगोंने एक बार भी भारतीय हितोंपर विचार करनेका कष्ट नहीं किया। मालूम होता है कि गुपचुप यह स्वीकार कर लिया गया है कि जो भारतीय इस समय दक्षिण आफ्रिकामें निवास कर रहे हैं उनका जरा भी खयाल करना जरूरी नहीं है। मालूम होता है, उनको यह सूझा ही नहीं कि उन लोगोंको, जिनमें से कुछ तो बहुत खुशहाल और इज्जतदार हैं, भारतसे अपनी पत्नियों और बच्चोंको या नौकरोंको लाना हो सकता है। भारतके लोगोंको जानकर आश्चर्य होगा कि, एक सुझाव गम्भीरताके साथ दिया गया है कि, जब उपनिवेशमें चावलोंका वर्तमान संग्रह खत्म हो जाये तब भारतीयों को मक्काके आहारपर रहनेके लिए बाध्य किया जाये। और, जहाँतक भारतसे लाई गई अन्य खाद्य-सामग्री और वस्त्रोंका सम्बन्ध है, सो अलबत्ता सिर्फ एक तफसीलकी बात है। मैरित्सबर्ग नगर परिषदने अपने क्षेत्रके भारतीय दूकानदारोंके नाम एक परिपत्र जारी किया है। उसके द्वारा उन्हें सूचना दी गई है कि उन्हें अपना माल कम करना शुरू कर देना चाहिए, क्योंकि प्लेग नजदीक होनेके कारण उनमें से हरएकको पृथक् बस्तियोंमें चले जानेका आदेश दिया जा सकता है। जहाज-कम्पनियाँ -सबसे अच्छी कम्पनियाँ भी-- भारतीय यात्रियोंको दक्षिण आफ्रिकाके किसी भी बन्दरगाहको ले जानेसे बिलकुल इनकार करती हैं। अनेक भारतीय व्यापारियोंके कुटुम्बी या साझेदार लोरेनजो मार्कसमें हैं, इसलिए उन्हें भारी असुविधा तथा भयानक चिन्ताकी स्थितिसे गुजरना पड़ रहा है। फिर भी उन लोगोंको नेटाल आने नहीं दिया जाता- इसलिए नहीं कि, लोरेनजो मार्कसको छूत-ग्रस्त बन्दरगाह घोषित कर दिया गया है, या वहाँ किसी भी हदतक प्लेग फैला हुआ है । नेटालने अब अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिए अप्रत्यक्ष और आपत्तिजनक तरीकोंका अवलम्बन किया है। उसके एशियाई-विरोधी कानूनसे यह स्पष्ट है। उसमें भोले व्यक्तियोंको भारतीयोंका उल्लेख कहीं ढूंढ़े भी न मिलेगा। स्पष्टत: वही तरीका प्लेगके सम्बन्धमें भी अख्तियार किया गया है। किसी भी जहाजको, जो किसी भारतीयको लेकर आता है, स्वास्थ्य- अधिकारी, सरकारसे पूछे बिना, सवारियाँ उतारनेकी इजाजत नहीं देता। पूछ-ताछकी इस प्रक्रिया-मात्रसे ही ऐसे जहाज़ोंका रुका रहना आवश्यक हो जाता है, भले ही, यह याद रखना जरूरी है कि, जहाजमें कोई बीमारी न हो और जहाज किसी बिलकुल नीरोग बन्दरगाहसे ही


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