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टिप्पणियाँ

थे। सदस्योंकी इच्छा वैसे तो कई तरहसे प्रशंसनीय है, लेकिन उसे पूरा कर पाना सम्भव नहीं हो सका है, क्योंकि ऐसी आशंका है कि कुछ लोग लौटाये हुए सूतको ही दोबारा चन्देके तौरपर भेज दे सकते हैं। कारण, फिर जो सूत भेजा जायेगा, उसके बारेमें संघके लिए यह निर्णय करना कठिन होगा कि किनका नया काता हुआ है और किनका पुराना ही दोबारा भेज दिया गया है। इसलिए इसका एक उपाय ढूँढ लिया गया है। वह यह कि जो सूत प्राप्त हो उसे ब्लीच करके फिर सम्बन्धित सदस्योंको ही बेच दिया जाये। ब्लीच करनेसे सूतको कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा। इससे वह ज्यादा उजला और कुछ मजबूत ही होगा।

इसलिए जो लोग कीमत देकर अपना तूत वापस लेना चाहते हों, वे डायरेक्टर, टेक्निकल डिपार्टमेन्ट, या मन्त्री, अखिल भारतीय चरखा संघको अर्जियाँ देकर उसे प्राप्त कर सकते हैं। और जो सदस्य अपना सुत वापस लेना चाहते हों, वे सूतके साथ भेजे कार्डोंपर स्पष्ट रूपसे यह लिखना न भूलें—"लौटाये जानेके लिए।"

यह विभाग वी० पी० डाकसे सूत वापस नहीं कर पायेगा। इसलिए मेरा सुझाव है कि देर न हो, इसके लिए सूत भेजनेवाले लोग डायरेक्टरके पास ५ रुपये जमा करा दें। ऐसा हो जानेपर सूतको दर्ज करके, उसकी जाँच करने और उसे ब्लीच करनेके बाद तुरन्त भेज दिया जायेगा। हाँ, अगर भेजनेवालोंकी इच्छा यह हो कि जब काफी सूत इकट्ठा हो जाये तभी लौटाया जाये, तो बात दूसरी है।

'आत्मकथा' के सम्बन्ध में

भारतमें और भारतसे बाहर रहनेवाले बहुत-से मित्र पत्र, तार और समुद्री तार भेजकर मुझसे उन अध्यायोंको पुस्तक रूप में प्रकाशित करनेकी अनुमति मांगते रहे हैं, जो मैं 'माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ' ('सत्यके प्रयोग') शीर्षकसे लिख रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओंके मालिक इन अध्यायको समय-समयपर अपने पत्र-पत्रिकाओंमें छापें, इसपर तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इस समय मैं किसीको उन्हें पुस्तक- रूपमें छापनेको अनुमति नहीं देना चाहता। मैं खुद ही यह कहनेकी स्थितिमें नहीं हूँ कि यह कहानी कब पूरी होगी, और मैं नहीं चाहूँगा कि ये अध्याय खण्डोंमें छपें। इसके अलावा में यह भी चाहूँगा कि पुस्तक रूपमें इनके प्रकाशनसे पहले या तो खुद ही इनका संशोधन करूँ या अपनी निगरानीमें किसी औरसे करवाऊँ।

इसलिए प्रकाशकोंको मैं सूचित करता हूँ कि इस समय में इन अध्यायोंको पुस्तकके-रूपमें छापने अथवा इनका अनुवाद करने की अनुमति देने को तैयार नहीं हूँ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ४-३-१९२६