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७७. एक प्रतिवाद

रेवरेंड एच० आर० स्कॉट,[१] जो इन दिनों सूरतमें रह रहे हैं, लिखते हैं:[२]

'यंग इंडिया' में प्रकाशित हो रही आपकी "कथा" को में बड़ी रुचिसे पढ़ता रहा हूँ...उन दिनों (१८८३ से १८९७ तक) राजकोटमें मेरे अलावा और कोई मिशनरी नहीं रहता था, और निश्चय ही मैंने "हाईस्कूलके कोनेपर खड़े होकर" कभी भी अपने धर्मका प्रचार करनेके लिए कोई व्याख्यान नहीं दिया...मुझे ठीक याद है कि मैंने कभी भी "हिन्दू-देवताओंकी और हिन्दूधर्मियोंकी निन्दा" नहीं की।...जिन दिनों में राजकोटमें रहता था, उन दिनों मैंने बहुत-से ब्राह्मणों और जैन साधुओंको ईसाई बनाया। निश्चय ही उन्हें धर्म-परिवर्तन के समय या किसी अन्य अवसरपर न तो "गोमांस खिलाया गया" और न "शराब पिलाई गई।"...

यद्यपि धर्म प्रचारके उद्देश्यसे ये भाषण चालीस वर्षसे भी पहले दिये गये थे, किन्तु उनकी दुःखद स्मृति मेरे मनमें अब भी ज्योंकी-त्यों बनी हुई है। उसके बादसे मैंने जो कुछ पढ़ा और सुना है, उससे मेरे मनपर पहले-पहल जो छाप पड़ी थी, वह और भी पुष्ट हुई है। मैंने मिशनरियोंकी बहुत-सी कृतियाँ पढ़ी हैं। वे तो सिर्फ बुरे पहलूको ही देख पाते और उसे और भी बुरा बनाकर पेश करते हैं। बिशप हेबरका "ग्रीन लैंड्स आइसी माउन्टेन्स" वाला प्रसिद्ध भजन[३] भारतके समस्त मानव समाजका अपमान है। कुछ एक सदाशयी मिशनरियोंने यरवदा जेलमें भी मुझे कुछ साहित्य भेजा था। उसको पढ़कर ऐसा लगा, मानो वह सिर्फ हिन्दू-धर्मको घटिया बताने के लिए ही लिखा गया हो। धर्मान्तरणके समय भी गोमांस खाने और शराब पीनेके बारेमें मैंने सिर्फ वही बताया है जो-कुछ मैंने सुना है और अपने लेखोंमें भी उतना ही कहा है। श्री स्कॉटके प्रतिवादको तो में स्वीकार करता हूँ, मगर साथ ही यह भी कहूँगा कि यद्यपि मुझे हजारों ईसाई भारतीयों के साथ बहुत मुक्त ढंगसे मिलने-जुलनेका मौका मिला है, फिर भी उनमें ऐसे बहुत कम लोग नजर आये जिन्हें गोमांस अथवा किसी और मांस और शराबसे कोई परहेज हो। जब-जब मैंने उनसे नम्रताके साथ इस विषयमें बातचीत की तो उन्होंने "किसी वस्तुको अशुद्ध न कहो" वाला प्रसिद्ध पद उद्धृत कर दिया, मानो इसका सम्बन्ध खाने-पीनेसे ही हो और इसमें भोगलिप्साके लिए पूरी छूट दे दी गई हो। मुझे मालूम है कि बहुत से हिन्दू मांस खाते हैं और कुछ

 
  1. लगता है, यहाँ भूलसे एस० आर० स्कॉटके बदले एच० आर० स्कॉट छप गया; देखिए "पत्र: एस० आर० स्कॉटको", २३-२-१९२६ ।
  2. पत्रके कुछ अंशोंका हो अनुवाद यहाँ दिया जा रहा है।
  3. इसमें कहा गया था कि यहाँ सब-कुछ सुन्दर है, मात्र मनुष्य ही पतित और अधम है।