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अपने नग्न रूपमें
निकाल दिया जाये (जिसकी मुझे आशंका नहीं थी) या मुझे जो निर्मम व्यवहार करनेका आदेश दिया गया था, उसमें कुछ सुधार किया जाये और उसका नतीजा क्या निकला? मेरा पत्र मुझे वापस कर दिया गया और मुझसे उसपर पुनः विचार करनेका अनुरोध किया गया...।

'फॉरवर्ड' ने लेफ्टिनेंट कर्नल द्वारा उल्लिखित पत्र भी प्रकाशित किया है। जब तत्कालीन जेल महानिरीक्षकको लेफ्टिनेंट कर्नल मलवेनीकी तिरस्कारयुक्त रिपोर्ट मिली तो उन्होंने उनको पत्र लिखा, जिसमें उनसे रिपोर्टपर पुन: विचार करनेका अनुरोध किया गया था और उन्हें संशोधित रिपोर्टमें कौन-सा झूठ लिखना चाहिए, यह भी बताया गया था। यहाँ में उस पत्रका एक अंश उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता। प्रासंगिक उद्धरण इस प्रकार है:

कृपया इस पत्रपर पुनः विचार कीजिए। याद रखिए कि इसे शिमला भेजना होगा और इससे सर्वोच्च अधिकारीगण कुपित हो उठेंगे। हम जो उन्हें (कैदियों को) तनहाईकी इतनी लम्बी सजा दे रहे हैं, उसका कारण सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकता है, जिसका तकाजा है कि इन कैदियोंको न केवल दूसरे देशी कैदियोंसे अलग रखा जाये, बल्कि एक-दूसरेसे भी न मिलने दिया जाये। मेरा खयाल है, आप चाहें तो इतना या इसी आशयके शब्द लिख सकते हैं कि दोनों कैदी तनहाईमें रखे जा रहे हैं, उन्हें प्रतिदिन जरूरी व्यायाम आदि करने दिया जाता है, दोनों प्रसन्न हैं और किसीका स्वास्थ्य खराब नहीं हुआ है।

यह पत्र मिलने पर लेफ्टिनेंट कर्नल मलवेनी दुःखके साथ अपमानका यह घूँट पी गये और जानते हुए गलत रिपोर्ट दी। इस रिपोर्टके बाद उसपर लीपा-पोती करने के लिए सरकारी सूत्रोंसे जारी की गई किसी भी रिपोर्टपर कैसे विश्वास किया जा सकता है? और यह कोई अपवाद भी नहीं है। सरकारी विभागोंसे जिन लोगोंका थोड़ा-बहुत भी सम्बन्ध है, वे भली-भाँति जानते हैं कि इस तरह झूठी रिपोर्ट और वक्तव्य गढ़ना सरकारके लिए बहुत ही आम बात है। आज हर चीज वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा 'सम्पादित' की जाती है।

बंगालके जिन बहादुर लोगोंको मुकदमा चलाये बिना अनिश्चित कालके लिए नजरबन्द कर रखा गया है, उनके रिश्तेदारोंको बड़ी कठिनाईसे उनके सम्बन्धमें कुछ बातें मालूम हो पाई हैं। ये बातें दुनियाको बता दी गई हैं और इनसे प्रकट होता है कि उन्हें बहुत ही अनावश्यक कष्ट दिये जा रहे हैं। आरोप आम तौरपर अस्वीकार कर दिये जाते हैं और जहाँ पूरी तरह अस्वीकार करते नहीं बनता, वहाँ अंशत: सत्यको स्वीकार कर लिया जाता है और कैदियोंको कष्ट मिलनेकी जो बात स्वीकार कर ली जाती है, उसकी जिम्मेदारी भी खुद कैदियोंपर ही डाल दी जाती है।

जब श्रीयुत गोस्वामी-जैसे लोग विधानसभाको इस विषयपर बहस करनेकी अनुमति देने पर मजबूर कर देते हैं तो सरकारी पक्षके सदस्य उनका मजाक उड़ाते