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९१. पत्र : डाह्याभाई म० पटेलको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार [५ मार्च, १९२६][१]

भाई डाह्याभाई,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं मामलतदार और कलक्टरके बारेमें लिखना अनुचित मानता हूँ। रामपुरके सम्बन्धमें टिप्पणी लिखूँगा। तुमने लिखा है कि हीराभाईने प्रेमपूर्वक और भक्तिपूर्वक नमस्कार कहा है और उसके साथ ही यह बताते हो कि उन्होंने कातनेकी प्रतिज्ञा ली थी, किन्तु फुर्सत होनेके बावजूद उसका पालन नहीं किया है। इस स्थितिमें उनका नमस्कार कैसे स्वीकार किया जा सकता है! जिससे सामान्य प्रतिज्ञाका भी पालन नहीं हो सकता उसका प्रेम और भक्ति कैसी होगी? यह बात उनसे पूछना और तब उनका जो उत्तर हो वह मुझे लिखना।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० २६९५) से।
सौजन्य : डाह्याभाई म० पटेल

९२. पत्र : एम० के० आचार्यको

साबरमती आश्रम
६ मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

अब जाकर मैं आपकी लिखी पुस्तिकाको पूरा पढ़ सका हूँ। मुझे कहना होगा कि उसमें लिखी बातें मनको पूरी तरह जमती नहीं। अस्पृश्यताके सम्बन्धमें आप जो कुछ कहते हैं, सर्वथा प्रमाण रहित है। आप जो उपाय सुझाते हैं, वह कोई उपाय नहीं है। आपने 'प्रारब्ध' का जो अर्थ किया है, वह ऐसा है कि यदि वह सच हो तो एक-दूसरे की मददकी कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती है और पृथ्वीपर हर नृशंसताको उचित ठहराया जा सकता है और इसलिए दक्षिण आफ्रिकामें हमारे देशभाइयोंके प्रति यूरोपीयोंके बरतावकी जितनी भी निन्दा की जाती है, वह बिलकुल गलत मानी

 
  1. डाककी मुहरसे।