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९४. पत्र : हरसुखरायको

साबरमती आश्रम
शनिवार, फाल्गुन वदी ७ [६ मार्च, १९२६]

भाई हरसुखराय,

आपका पत्र मिला। आप यदि यह बात भूल जायें कि आप वकील हैं तो बहुत से उपाय बताये जा सकते हैं। लेकिन क्या आपको शरीर श्रम करनेके लिए कहा जा सकता है? आप स्वयं सूत कातें, दूसरोंसे कतवायें, स्वयं रूई पींजें और दूसरोंसे पिजवायें—क्या आपको ऐसे कार्योंमें रस आयेगा? जैसे मजदूर आजीविका प्राप्त करके सन्तोष पाता है, क्या आप वैसे सन्तोष पा सकते हैं? मेरे सभी उपाय तो जितने आसान हैं, उतने ही कठिन हैं। लेकिन यदि आप मजदूरका जीवन बिता सकते हों तो लिखें।

मोहनदास गांधी वन्देमातरम्

गुजराती पत्र (एस० एन० १०६०९) की फोटो-नकलसे।

९५. विशुद्ध धार्मिक विधिसे

सत्याग्रहाश्रमका आदर्श अखण्डित ब्रह्मचर्य होनेके बावजूद उसमें कुछ विवाह सम्पन्न हुए हैं। ये विवाह लोगोंके लिए जानने योग्य होनेके कारण मैं इनपर 'नवजीवन' में टिप्पणी[१] लिख चुका हूँ। "जहाँ ब्रह्मचर्य आदर्श हो वहाँ इस प्रकार विवाहको कैसे प्रोत्साहन दिया जा सकता है," इस प्रश्नकी चर्चा मित्रोंके बीच की जा चुकी है। तथापि आश्रमकी प्रवृत्तियों में दिलचस्पी रखनेवाले पाठक वर्गके लिए भी संक्षेपमें इस प्रश्नका उत्तर देने की बात अनुचित नहीं मानी जायेगी।

सत्याग्रहाश्रमके ब्रह्मचर्यके आदर्शको प्राप्त करने की इच्छा करनेवाले लोग यदि विवाह-विधि सम्पन्न होती देखकर ही भड़क जायें तो वे अखण्डित ब्रह्मचर्यका पालन नहीं कर सकते, ऐसा मेरा मत है। ऋष्यशृंगका[२] उदाहरण तो प्रसिद्ध ही है। जिस वस्तुसे मनुष्य दूर रहना चाहता है, यदि उसके पीछे उसका मन दौड़ता हो तो उससे दूर रहने का ढोंग लम्बे समयतक नहीं निभ सकता। इसके बजाय उसे उसके सम्मुख जो भी प्रलोभन उपस्थित हों, उनसे संघर्ष करनेकी तैयारी रखनी

 
  1. देखिए खण्ड २६, पृष्ठ ४२८-३० ।
  2. महर्षि विभाण्डकके पुत्र। इनकी कथा महाभारतके वनपर्व में आती है। इन्होंने युवा होनेतक स्त्रीका कभी दर्शन ही नहीं किया था, किन्तु उसपर पहली बार दृष्टि पड़ते ही मोहित हो गये थे।