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विशुद्ध धार्मिक विधिसे

चाहिए। जिस ब्रह्मचारीका मन अस्थिर हो उसे ब्रह्मचारी नहीं माना जा सकता। स्वेच्छासे पालन किया जानेवाला संयम ही टिक सकता है। इसीलिए निष्कुलानन्दने कहा है कि "त्याग न टिके रे वैराग बिना।" जिसे अपने संयममें आनन्द आता है, जिसे अपना संयम प्रिय है, वह ऐसी कोई वस्तु देखकर, जो उसके संयमके प्रतिकूल हो, ललचायेगा नहीं, अपितु उदासीन रहेगा।

इसके अतिरिक्त सत्याग्रहाश्रम में बालक-बालिकाओंका भी पालन हो रहा है। उन्हें बलात् ब्रह्मचारी रखना आश्रमका हेतु नहीं हो सकता। उनको जब अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव लगे तब उन्हें विवाह करनेमें मदद देना आश्रमका सहज धर्म हो जाता है। इसके अतिरिक्त आश्रम-जीवनमें रस लेनेवाले कुछ मित्र हैं। उन्हें उनके बच्चोंके विवाहोंको यथाशक्ति आदर्श रूप देने में मदद करना भी आश्रमवासियोंने अपना धर्म माना है और मैं मानता हूँ कि ऐसे विवाह आश्रमके तत्त्वावधान में हों तो भी वे ब्रह्मचर्यके आदर्शको धक्का नहीं पहुँचायेंगे। इस कारण कहा जा सकता है कि मैंने ऐसे विवाहोंको आश्रमके तत्त्वावधान में होनेसे रोकने के बजाय प्रोत्साहन दिया है। ऐसा एक विवाह तो थोड़े समय पहले आश्रममें ही पली-पुसी एक बालिकाका हुआ है। भाई लक्ष्मीदास पुरुषोत्तमसे 'नवजीवन' के पाठक परिचित हैं। उनकी बड़ी लड़की चि० मोतीका विवाह एक मास पहले भड़ींच शिक्षा मण्डलके भाई नाजुकलाल चौकसीके साथ हुआ है। इस विवाहमें एक कौड़ीका भी लेन-देन नहीं हुआ। भाटिया जातिमें ऐसा विवाह शायद ही होता है, ऐसा मैंने सुना है। यदि ऐसा कहें कि यह विवाह स्वयंवरकी कोटिका था तो गलत नहीं होगा, क्योंकि यद्यपि पहली पसन्द कन्याके माता-पिताकी थी तथापि अन्तिम पसन्द तो वर-कन्याकी ही थी और जब दोनोंको ऐसा लगा कि वे विवाह बन्धनमें बँधना चाहते हैं, तभी कन्या दान किया गया। मित्र-वर्गके अलावा किसीको भी साथीके रूपमें अथवा दूसरी तरह आमन्त्रित नहीं किया गया था। वर-कन्या दोनोंने अपनी हमेशाकी शुद्ध खादीकी पोशाक पहनी थी। श्रृंगार-मात्रका दोनोंने स्वेच्छासे त्याग किया था। दोनोंने उस दिन पाणिग्रहण होनेतक उपवास किया था। विवाह-विधिमें प्राचीन शास्त्र सम्मत क्रियाके सिवा और कुछ नहीं किया गया था। वरकी ओरसे कन्याको कुछ भी नहीं दिया गया था, क्योंकि कन्याके माता-पिताकी इच्छा यहीं थी। हिन्दुस्तानमें क्वचित ही ऐसा विवाह देखनेमें आता है, जिसमें दोनोंमें से एक भी पक्षके पाँच-सात रुपये भी खर्च न हों और विवाहको केवल संयमका साधन माना जाये।

इस तरहसे हुए विवाहको हम असंयम अथवा विषयोपभोगका साधन नहीं मान सकते। वह ब्रह्मचर्यके समान एक प्रकारका संयम ही है। मैं जानता हूँ कि भाटिया-समाजमें बहुत ज्यादा धन होनेके कारण विवाहका खर्च दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। कन्या तो बेची ही जाती है, ऐसा कहा जा सकता है। ऐसा करनेमें शर्म भी नहीं मानी जाती, क्योंकि यह बात आम हो गई है। इससे गरीब भाटियोंको तो भाटिया परिवार इस कन्या मिलनी ही मुश्किल हो जाती है। धार्मिक भावनावाले विवाहका अनुकरण करें, इस आशासे मैंने इस संस्कारको इतनी प्रसिद्धि दी है।