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एन्ड्रयूजकी व्यथा

जाये जैसी १९१४ में आई थी; वह शायद हमारी बातके औचित्यको उसी तरह महसूस करने लगे जिस तरह उसने १९१४ में किया था। दो नेताओंसे बहुत लम्बी वार्ताएँ हुई—एक जनरल हेटसॉगसे और दूसरी मलानसे। दोनों समस्या के समाधानके लिए उत्सुक थे और उनके व्यवहारमें मुझे पूरी ईमानदारी दिखाई दी। मुझे यह भी लगा कि वे अपनी बुनियादी स्थितिसे डिग गये हैं। और विधेयकको कमसे-कम बहुत दिनोंके लिए स्थगित तो रखा ही जायेगा।

लेकिन, अब फिर सारी बातें बदल गई हैं। प्रतिक्रिया रंगभेद विधेयकके साथ प्रारम्भ हुई। संसदमें जो दृश्य उपस्थित हुए, नैतिक दृष्टिसे उनसे अधिक बुरी चीज और कुछ नहीं हो सकती थी। दोनों पक्ष एक-दूसरेपर धोखेबाजी का आरोप लगा रहे थे।...

...प्रथम वाचनके अवसरपर जो दृश्य उपस्थित हुआ, वह बहुत महत्त्वपूर्ण था। स्मट्स और स्मार्ट तो उसमें आये ही नहीं। शेष सदस्योंने लगभग छिछोरे ढंगसे आपसमें मत-विभाजन किया। पक्षमें ८१ और विपक्षमें १० मत आये। इन दसमें सिर्फ केपके सदस्य शामिल थे, जिनके रंगदार मतदाता भी हैं और इसलिए जिन्हें उनका खयाल रखने की जरूरत है।

आजका दक्षिण आफ्रिका तो कोई और ही दक्षिण आफ्रिका है। लगता है, वे उदारतावादी लोग, जिनके अस्तित्वसे मैं और आप १९१४ में भली-भाँति परिचित थे, एकदम लुप्त हो गये हैं।...

...अब तो आगे सिर्फ पराजय ही दिखाई दे रही है।

मणिलाल बहुत अच्छा काम करते रहे हैं और इस बातसे उनका हृदय जितना व्यथित हो रहा है उतना और किसीका नहीं होगा।


मैं श्री एन्ड्रयूजकी इस निराशापूर्ण भविष्यवाणीसे सहमत नहीं हूँ। मैं कुछ ऐसा मानता होऊँ कि साम्राज्य-सरकार या भारत सरकार कोई पराक्रम कर दिखायेगी सो बात नहीं है। लेकिन मैं यह अवश्य मानता हूँ कि जब सत्यका पक्ष लेकर बहादुर लोग चल रहे हों तो उसकी विजय अवश्यंभावी है। साथ ही मुझे यह विश्वास भी है कि जब अन्तिम परीक्षाकी घड़ी आयेगी उस समय भारतीय प्रवासी अपनी वीरता और त्याग-बलिदानका ठीक परिचय देंगे। विजय पानेके लिए उन्हें सिर्फ स्वेच्छया कष्टसहनके लिए, जो मनुष्यको ऊपर उठाता है, तैयार रहना है। जिन कानूनोंके खिलाफ वे लड़ रहे हैं, उनमें उनके लिए अनिवार्य और अपमानजनक कष्ट सहनकी व्यवस्था है। अब इन दोनों प्रकारके कष्टोंमें से किसको चुनें, यह तो स्वयं उन प्रवासियोंपर ही निर्भर करता है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ११-३-१९२६
 
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