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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

संसारमें प्रचार होना चाहिए? क्या सत्य और अहिंसाको दृष्टिसे अमेरिका और भारतवर्ष आपकी नजरोंमें समान नहीं होने चाहिए?

इस सम्बन्ध में में एक या दो उदाहरण भी दूँगा। हमारे नबी, मुहम्मद साहबने, जब उन्हें आवश्यकता हुई, अपनी जन्मभूमि मक्काके बाहर रहनेवाले मदीने के अपने अनुयायियोंकी मदद लेनमें जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी। अभी हालकी ही बात है कि स्वामी विवेकानन्दने भी संसारको अपना सन्देश सुनाने के लिए अमेरिकाको ही अधिक उपयुक्त स्थान पाया था।

और यदि खादी आन्दोलनको सफल बनानेका कार्य ही आपके वहाँ जानेमें बाधा रूप है तो आपको यह मालूम है कि आप अमेरिकामें चन्दा इकट्ठा कर सकते हैं। आप यह शर्त क्यों नहीं कर लेते (कमसे-कम अपने-आपसे) कि आपको अमेरिकामें खादीके लिए मुक राशि अवश्य इकट्ठी करनी है। "आदान-प्रदान" के नियमको अपना काम करने देना चाहिए। खादी आन्दोलनको यदि काफी पैसेकी मदद मिले तो उसे लोकप्रिय और सफल बनाने में कोई देर न लगेगी।

अमेरिकाके निमन्त्रणको स्वीकार करनेके लिए अनुरोध करनेवाले अनेक पत्र मिले हैं, जिनमें से एक पत्र यह है। मेरी दलील तो बड़ी सीधी-सादी है। मुझमें इतना आत्मविश्वास ही नहीं है कि अमेरिका जानेका निश्चय कर सकूँ। मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि अहिंसा के आन्दोलनका प्रभाव स्थायी है। उसकी अन्तिम सफलताके विषयमें मुझे तनिक भी शंका नहीं है। परन्तु में अहिंसाकी शक्तिका कोई दृश्य प्रमाण नहीं दे सकता हूँ, और जबतक वैसा न कर सकूँ तबतक मेरा खयाल है कि मुझे उसका भारतके संकुचित क्षेत्रमें ही प्रचार करते रहना चाहिए। मेरे मामलेमें और दिये गये उदाहरणों में कोई समानता नहीं है। जो भी हो, मुहम्मद साहब और स्वामी विवेकानन्दको उसकी वांछनीयताकी स्पष्ट प्रतीति हुई थी, परन्तु मुझे अभीतक ऐसी प्रतीति नहीं हुई है।

खादी-आन्दोलनका सफल होना सिर्फ पैसेपर ही निर्भर नहीं करता है। उसे स्थिर बनानेके लिए और कितनी ही बातोंका होना आवश्यक है । यदि मैं कभी अमेरिका गया भी तो मैं इस इरादेसे नहीं जाऊँगा कि किसी भी भारतीय आन्दोलनके लिए, जिसके साथ मेरा सम्बन्ध हो, पैसा इकट्ठा करूँ। भारतको अपना बोझ आप ही उठाना चाहिए। और यदि अमेरिकाको भारतकी मदद करना आवश्यक जान पड़ा तो वह 'आदान-प्रदान' के सिद्धान्तके अनुसार नहीं, परन्तु स्वतन्त्र तौरपर ही उसकी मदद करेगा। अमेरिकाकी मदद और मेरी अमेरिका यात्रा दोनों अपने-अपने गुणोंपर ही आधारित होनी चाहिए।

भूल-सुधार

एक पत्र लेखकने लिखा है कि १८-२-१९२६ के 'यंग इंडिया' विधान परिषद्के जिन सदस्य महोदयकी चर्चा की गई है, वे स्वयं चरखा नहीं कातते। उनके