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१०४. पत्र : डी० हनुमन्तरावको

साबरमती आश्रम
११ मार्च, १९२६

प्रिय हनुमन्तराव,

मुझे तुम्हारे पत्र अच्छे लगे, खासकर सबसे बादवाला, हालाँकि तुम्हारे कई निष्कर्षोंसे में सर्वथा असहमत हूँ। कोई दवा न लेनेके सिद्धान्तमें तुम्हारा दृढ़ विश्वास मुझे अच्छा लगता है और तुम्हारा यह आग्रह भी मुझे अच्छा लगता है कि मैं किसी भी स्थितिम दवाएँ न लूँ, लेकिन अनुभवसे मुझको सीख मिली है कि सुधारकोंमें कुछ हदतक असहिष्णुता और कट्टरता आ जाती है, जो खुद उस सुधारके लिए ही बाधक सिद्ध होती है, जिसके लिए सुधारकोंके दिलमें इतनी ज्यादा ख्वाहिश होती है।

उदाहरणके लिए, कुनैनकी जो बुराइयाँ तुम गिनाते हो, वे ऐसी बुराइयाँ हैं जो बहुत समयतक बड़ी मात्रामें उसे लेनेसे पैदा होती हैं, बल्कि जबकि मैंने उसे पाँच-पाँच ग्रेनकी मात्रामें लिया और २४ घंटे में कभी भी १० ग्रेनसे ज्यादा नहीं लिया। हर खुराकको मैंने ताजे नींबू के रसमें काफी पानी और सोडा बाईकार्ब मिलाकर लिया। ५ दिनों में कुल मिलाकर मैंने ३० ग्रेनसे ज्यादा कुनैन नहीं खाई। इस प्रकार ४ दिन सिर्फ ५-५ ग्रेन कुनैन ही ली। मुझपर उसका कोई बुरा प्रभाव पड़ा नहीं दिखता है, और उधर इतनी मात्रामें कुनैन लेकर मैंने उन अनेक चिन्तित मित्रों और डाक्टरोंको भी सन्तुष्ट किया जिनका आग्रह था कि मुझे १५-१५ ग्रेनकी खुराकें लेनी चाहिए।

कुनैनकी अविवेकपूर्ण निन्दा व्यर्थ सिद्ध होगी, क्योंकि वही एक ऐसी दवा है जिसकी मलेरियाको कुछ समयके लिए अच्छा कर देनेकी सामर्थ्य में सन्देह नहीं किया जा सकता। यदि कुनैनका तत्कालीन ठोस नतीजा यह निकलता है कि मलेरियाका प्रकोप रुक जाता है तो लोग उसके सम्भावित बुरे प्रभावोंसे नहीं डरेंगे। अतः कुनैनपर सीधा आक्रमण न करके बहुत सोच-समझकर बाजूसे करना चाहिए।

जब मैं जेलमें था, उस समय जिन कारणोंसे मैंने ऑपरेशन करवा लिया था, उन्हीं कारणोंसे मैंने कुनैन भी खाई। अगर उस समय बन्धनमें होनेके कारण ही मैंने अपना आग्रह छोड़ दिया तो फिर इस सबसे ताजा उदाहरणमें विशुद्ध प्रेमके बन्धनको उसकी अपेक्षा कितना अधिक प्रभावकारी होना चाहिए था, यह सोचनेकी बात है। लेकिन फिर भी अगर मुझे यह विश्वास नहीं हो जाता कि मैं जो ऑपरेशन करवानेको तैयार हो रहा हूँ, उसके पीछेसे मेरे ही मनकी कमजोरी बोल रही है तो मुझे दुनिया की कोई भी चीज सँसून अस्पतालमें ऑपरेशन करानेको प्रेरित नहीं कर सकती थी। किन्तु, यह कमजोरी है क्या? वह जिस चीजको "प्राकृतिक उपचार" कहते हैं, उसकी पूर्ण सक्षमता में विश्वासका अभाव ही तो है। प्राकृतिक उपचार भी अभी प्रयोगपरीक्षाकी स्थितिसे गुजर रहा है और उसका विकास हो रहा है। अभी यह उस पूर्णताकी अवस्थातक नहीं पहुँच पाया है, जहाँ हम शत-प्रतिशत परिणामकी आशा रख