पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
स्वीडनसे

उपादान अर्थात् रेलवेपर निर्भर करती है। इसी कारण घर-घर कताई करनेके सन्देशके प्रचारमें इतनी ज्यादा सरगरमी आ पाई है, कांग्रेसकी इतनी अधिक बैठकें होती रही हैं, नेता लोग अलग-अलग स्थानोंपर अलग-अलग अवसरोंपर मिलते-जुलते रहे हैं।...

...गांधीमें जो एक तीसरी विसंगति देखने को मिलती है, उसका सम्बन्ध जाति प्रथाके प्रति उनके रवैयेसे है। स्वभावतः गांधी वह सामाजिक व्यवस्था लानेके लिए आकुल हैं जो उनके आर्थिक आदर्श, अर्थात् ग्राम्य समाजको स्वतन्त्रता और आत्मनिर्भरताके आदर्शके उपयुक्त हो। इसलिए गांधीको पुरानी जाति-प्रथाका समर्थक होना चाहिए था। लेकिन बात ऐसी है नहीं। कई विषयोंपर, विशेषकर अस्पृश्योंके बारेमें, गांधीने ऐसा मत व्यक्त किया है जो पुराण-पंथी दृष्टिकोणसे अलग है। इस प्रकार वे वास्तवमें आधुनिकता के पक्षमें काम कर रहे हैं। स्पष्ट है कि...इतनी विसंगतियों और विचित्रताओंसे भरे आन्दोलनका कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं निकल सकता। कौंसिलों, स्कूलों और अदालतोंका तथा मिलोंमें पैदा किये गये मालका बहिष्कार बिलकुल विफल हो गया है।

जहाँतक पत्रमें पूछे गये प्रश्नका सम्बन्ध है, मैं फिरसे वही बात कहूँगा जो पहले इन स्तंभों कह चुका हूँ—अर्थात्, असहयोगके मूल कार्यक्रममें मेरा विश्वास अक्षुण्ण है। मुझे यह भी लगता है कि इसने राष्ट्रकी बहुत बड़ी सेवा की है। जिन संस्थाओंपर प्रहार किया गया है, उनका पुराना रुतबा अब नहीं रह गया है। लेकिन, में यह स्वीकार करता हूँ कि प्रतिक्रिया भी बहुत जबर्दस्त हुई है और जिनका उन संस्थाओंसे सम्बन्ध था उनमें से बहुत से लोग उनमें फिरसे लौट गये हैं। लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि उपयुक्त समय आनेपर यह कार्यक्रम निश्चय ही फिरसे चालू किया जायेगा। हो सकता है, तब वह कुछ बदले हुए रूपमें चालू किया जाये, किन्तु उसकी बुनियादी-विशेषताएँ वही रहेंगी। इस बीच एक व्यावहारिक व्यक्तिकी तरह में, अपने सिद्धान्तों या आचरणकी बलि दिये बिना, जिस-किसी नम्र तरीके से अपने पुराने साथियोंकी मदद कर सकता हूँ, उस तरीकेसे उनकी मदद कर रहा हूँ।

और जहाँ एक स्वीडिश अखबारसे उद्धृत किये गये अंशका सवाल है, यह मेरे उद्देश्यों और कार्योंके सम्बन्धमें उसी अज्ञानका द्योतक है जो लोगोंमें आम तौरपर पाया जाता है। मुझे रेलगाड़ियोंको खत्म करनेकी कोई चिन्ता नहीं है। मुझे चरखेके प्रसार और रेलवेके अस्तित्व कोई असंगति नहीं दीखती। चरखेका उद्देश्य राष्ट्रीय गृह-उद्योगमें फिरसे जान डालकर उससे प्राप्त धनका स्वाभाविक और न्यायोचित वितरण करना है और इस तरह मजबूरीकी बेकारी और दरिद्रताकी दोहरी बुराईको दूर करना है। यह उद्योग कृषिके बाद भारतका सबसे बड़ा धन्धा है और मैंने अंग्रेजोंको भारतसे निकाल बाहर करनेकी बात न कभी कही है और न मनमें ही सोची है। जिस बातकी मुझे चिन्ता है वह यह है कि अंग्रेज लोग भारतके शासनके प्रति अपने रवैयेमें आमूल परिवर्तन करें। आजकी इस अस्वाभाविक और पतनकारी प्रणालीको, जो एक प्रकारकी छिपी हुई दासता ही है, किसी भी कीमतपर बदलना होगा।