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१५. पत्र: कृष्णदासको

साबरमती आश्रम
१३ फरवरी, १९२६

प्रिय कृष्णदास,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे नियमित रूपसे लिखते रहो। मैं भी यही मानता हूँ कि आजकल गुरुजीका[१] कलकत्तासे बाहर रहना बेहतर होगा। आखिरकार कलकत्ताकी आबोहवा बहुत अच्छी तो नहीं है। उनके स्वास्थ्यका ध्यान रखना सबसे जरूरी है, तुम्हारी पुस्तक पूरी होनेकी बात बादमें आती है। और बेशक, मैं उनके लिए तुम्हारे भोजन पकाने की भी बातको पसन्द करता हूँ। जब वातावरणके प्रति ऐसे संवेदनशील रोगीके लिए भोजन बनाना हो जैसे कि गुरुजी हैं तब भोजन बनाने में कोमल और स्नेहपूर्ण स्पर्शसे अन्तर तो पड़ता ही है।

मुझमें धीरे-धीरे ताकत आती जा रही है, और में पूरा आराम कर रहा हूँ। अंग्रेजीका सारा पत्र-व्यवहार सुब्बैया करता है और अब चन्द्रशंकर गुजरातीमें मेरा बोला हुआ लिखता है। अभी तुरन्त ही 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' के लिए लेख बोलकर लिखवाऊँगा। देवदास अभी भी देवलाली में है। दस दिनसे ज्यादा ही होनेको आये, मगर तुलसी मेहरके बारेमें किसीको कोई खबर नहीं मिली है। क्या तुम जानते हो कि वह कहाँ है?

हृदयसे तुम्हारा,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४१०१) की फोटो-नकलसे।

१६. पत्र: सत्यानन्द बोसको

साबरमती आश्रम
१३ फरवरी, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका स्नेहपूर्ण पत्र मिला। लेकिन यदि में समुद्र यात्रापर चले जानेका प्रयत्न करूँ तो निश्चित है कि परिणाम वहीं होंगे, जिनकी आपको आशंका है। अपनी किसी भी गतिविधिको गुप्त रख पाना मैंने बिलकुल असम्भव पाया है, और जहाजपर या तो मैं अपनेको कैदी पाऊँगा या फिर प्रदर्शनी में रखे गये जानवर-जैसा। इसलिए मुझे किसी ऐसे ठंडे स्थानपर जानेकी कोशिश करनी चाहिए, जहाँ मैं मुलाकातियोंसे

 
  1. सतीशचन्द्र मुखर्जी, जो उस समय दरभंगामें स्वास्थ्य-लाभ कर रहे थे।