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सत्य बनाम ब्रह्मचर्य

बच सकूँ और थोड़ी शान्ति पा सकूँ। यों भी मुझमें धीरे-धीरे फिर ताकत आती जा रही है। इसलिए चिन्ता करनेकी कोई बात नहीं है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सत्यानन्दजी बोस

२/८, धर्मतल्ला स्ट्रीट

कलकत्ता

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४१०२) की फोटो-नकलसे।

१७. सत्य बनाम ब्रह्मचर्य[१]

एक मित्र महादेव देसाईको लिखते हैं :

आपको स्मरण होगा कि गांधीजीने कुछ महीने पहले 'नवजीवन' में ब्रह्मचर्यपर एक लेख लिखा था,[२] और 'यंग इंडिया' के लिए उसका अनुवाद शायद आपने ही किया था। उस लेखमें गांधीजीने स्वीकार किया था कि उन्हें अब भी दूषित स्वप्न आते हैं। इसे पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा था कि ऐसी बातें स्वीकार करनेका प्रभाव कभी अच्छा नहीं हो सकता और बादमें मुझे मालूम हुआ कि मेरा यह भय ठीक था। मैंने और मेरे दो मित्रोंने अपने इंग्लैंड प्रवासमें अनेक प्रकारके प्रलोभनोंके होते हुए भी अपना चरित्र शुद्ध रखा था। हम उन तीन मक्कारोंसे तो बिलकुल ही दूर रहे थे। लेकिन गांधीजीका यह लेख पढ़कर मेरे एक मित्र बिलकुल ही हताश हो गये और उन्होंने वृढ़तापूर्वक मुझसे कहा, "इतना भगीरथ प्रयत्न करनेपर भी जब गांधीजीकी यह हालत है तब फिर हम किस गिनतीमें हैं? ब्रह्मचर्य पालन करनेके ये सारे प्रयत्न तब तो व्यर्थ हैं। गांधीजीकी स्वीकृतिसे मेरा दृष्टिबिन्दु सर्वथा बदल गया है। मुझे तो अब तुम डूबा ही समझो।" कुछ हतप्रभ-सा होकर मैंने उसे समझाने की कोशिश की: "यदि गांधीजी-जैसोंको भी इस मार्गपर चलना इतना कठिन मालूम होता है तो फिर हमें अब तिगुना प्रयत्न करना चाहिए", आदि-आदि। मतलब कि वैसी ही दलीलें दीं, जैसी आप या गांधीजी देते। लेकिन मेरा यह सब प्रयत्न व्यर्थ गया। जो चरित्र आजतक निष्कलंक रहा था वह कलंकित हो गया। यदि कोई कर्म-सिद्धान्तके अनुसार इस युवकके अधःपतनका कुछ दोष गांधीजीपर लगाये तो आप या गांधीजी क्या कहेंगे?

 
  1. इसका अंग्रेजी अनुवाद २५-२-१९२६ के यंग इंडिया में भी प्रकाशित हुआ था।
  2. देखिए खण्ड २४, पृष्ठ १२१-२४ ।