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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जबतक मेरे ध्यान में यह एक ही उदाहरण आया था, मैंने आपको कुछ नहीं लिखा। मैं इसके लिए तैयार न था कि आप उसे अपवाद कहकर आसानीसे टाल दें और में उस उत्तरसे सन्तोष मान लूँ। लेकिन इधर इस तरहके दूसरे उदाहरणोंसे मेरे उक्त भयकी पुष्टि हुई है और मुझे इस बातका यकीन हो गया है कि मेरे मित्रपर उस लेखका जो प्रभाव हुआ वह केवल अपवादरूप न था।

मैं यह जानता हूँ कि ऐसी हजारों बातें हैं जिन्हें गांधीजी आसानीसे कर सकते हैं, पर जो मेरे लिए सर्वथा अशक्य हैं। लेकिन मुझे भी भगवानको कृपासे इतना बल तो प्राप्त है कि जो गांधीजीको भी अशक्य मालूम हो, ऐसी कोई एक-दो बातें मेरे लिए अवश्य ही शक्य हो सकती हैं। गांधीजीकी स्वीकृति पढ़कर मेरा अन्तर विलोड़ित हुआ है और ब्रह्मचर्य का पालन कर सकनेके सम्बन्धमें मेरी निश्चिन्तता जो विचलित हुई है सो अभीतक स्थिर नहीं हो पाई है। किन्तु ऐसे ही किसी विचारने मुझे अधःपतनसे बचा लिया है। बहुत बार तो कोई एक दोष ही दूसरे वोषोंसे मनुष्यकी रक्षा कर लेता है । मैं इसमें अपने इस अभिमान दोषके कारण (जो गांधीजीके लिए अशक्य है, वह मेरे लिए शक्य है!) ही पतित होते-होते बचा।

क्या आप गांधीजीके ध्यान में यह बात लानेकी कृपा करेंगे—खासकर इस समय जब वे अपनी आत्मकथा[१] लिख रहे हैं? सत्य और शुद्ध सत्य लिखना साहसका काम तो अवश्य है; लेकिन संसारमें और 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' के पाठकोंमें इसका विरोधी गुण ही अधिक परिमाणमें है, इसलिए एकका खाद्य दूसरेके लिए विष हो सकता है।

यह शिकायत कोई नई नहीं है। असहयोग आन्दोलन जिस समय जोरसे चल रहा था उस समय जब मैंने अपनी भूल स्वीकार की थी तब एक मित्रने मुझे सरलभावसे लिखा था:

आपको तो भूल हो जाये तो भी, उसे स्वीकार न करना चाहिए। लोगों का यह खयाल बना रहना चाहिए कि ऐसा भी कोई मनुष्य है जिससे कोई भूल ही नहीं हो सकती। आप ऐसे ही मनुष्य गिने जाते थे। अब आपने भूल स्वीकार की है इसलिए लोग हताश होंगे।

इस पत्रको पढ़कर मुझे हँसी आई और खेद भी हुआ। लेखकके भोलेपनपर मुझे हँसी आई। जिससे कभी भूल न हो, ऐसा मनुष्य न मिले तो किसीको इस रूपमें पेश करने और लोगोंको उसे ऐसा ही माननेको कहनेका विचार भी मुझे कष्टप्रद प्रतीत हुआ।

 
  1. यह नवजीवनमें, २६-११-१९२५ से और यंग इंडियामें ३-१२-१९२५ से धारावाहिक रूपमें प्रकाशित हो रही थी।