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सत्य बनाम ब्रह्मचर्य

मुझसे भूल हो और वह लोगोंको मालूम हो जाये तो उससे उनको हानिके बजाय लाभ ही होगा। मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि में अपनी भूलोंको तुरन्त स्वीकार कर लेता हूँ, इससे जनताको लाभ ही हुआ है। और मैंने यह अनुभव किया है कि उससे मुझे तो अवश्य लाभ हुआ है।

मेरे दूषित स्वप्नोंके सम्बन्धमें भी यही समझना चाहिए। यदि में पूर्ण ब्रह्मचारी न होनेपर भी वैसा होनेका दावा करूँ तो उससे संसार की बड़ी हानि होगी, क्योंकि उससे ब्रह्मचर्य कलंकित होगा, सत्यका सूर्य म्लान हो जायेगा। ब्रह्मचर्यका मिथ्या दावा करके मैं ब्रह्मचर्यका मूल्य क्यों घटाऊँ? आज तो में यह देख सकता हूँ कि मैं ब्रह्मचर्य पालनके जो उपाय बताता हूँ वे पूर्ण नहीं हैं, सब लोगों के सम्बन्धमें पूर्णतया सफल नहीं होते, क्योंकि मैं स्वयं पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं हूँ। यदि संसार यह माने कि में पूर्ण ब्रह्मचारी हूँ और में उसका उपाय न बता सकूं तो यह कितनी बड़ी त्रुटि गिनी जायेगी?

मैं सच्चा साधक हूँ, मैं सदा जागृत रहता हूँ, मेरा प्रयत्न दृढ़ है, इतना ही क्यों पर्याप्त न माना जाये? इसी बातसे दूसरोंको मदद क्यों नहीं मिल सकती? यदि मैं भी विचारके विकारोंसे दूर नहीं रह सकता तो फिर दूसरोंका तो कहना ही क्या है? ऐसा गलत तर्क करनेके बजाय यह सीधा तर्क ही क्यों न किया जाये कि जो गांधी एक समय व्यभिचारी और विकारी था यदि वह आज अपनी पत्नी के साथ भी विकार रहित भावसे रह सकता है और रम्भा जैसी युवतीके साथ भी, उसके प्रति बेटी या बहनका-सा भाव रखकर रह सकता है तो हम सब लोग भी इतना क्यों न कर सकेंगे? हमारे स्वप्नदोषोंको, विचार-विकारोंको तो ईश्वर दूर करेगा ही। यह सीधा तर्क है।

लेखकके वे मित्र तो, जो स्वप्नदोषोंकी मेरी स्वीकृतिके बाद पीछे हटे हैं, कभी आगे बढ़े ही न थे। उन्हें झूठा नशा था, वह उतर गया। ब्रह्मचर्यादि महाव्रतोंकी सत्यता या सिद्धि मुझ जैसे किसी भी व्यक्तिपर अवलम्बित नहीं है। उसके लिए तो लाखों मनुष्योंने उग्र तपश्चर्या की है और कुछ लोग तो पूर्णरूपसे सफल प्रयत्न भी हुए हैं। जब मुझे इन सिद्ध पुरुषोंकी पंक्ति में खड़े होनेका अधिकार प्राप्त होगा तब मेरी भाषामें आजसे भी अधिक निश्चय दिखाई देगा। जिसके विचारमें विकार नहीं है, जिसकी निद्रा भंग नहीं होती है और जो निद्रित होनेपर भी जागृत रह सकता है, वह नीरोग होता है। उसे कुनेनके सेवनकी आवश्यकता नहीं होती। उसके विकार रहित रक्तमें ही ऐसी शुद्धि होती है कि उसे मलेरिया इत्यादिके कीटाणु कभी पीड़ित नहीं कर सकते। मैं इस स्थितिको ही प्राप्त करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ। उसमें हारनेकी कोई बात ही नहीं है। मैं उस प्रयत्नमें लेखकको, उनके श्रद्धाहीन मित्रोंको और दूसरे पाठकोंको अपना साथ देनेका निमन्त्रण देता हूँ और चाहता हूँ कि लेखककी तरह वे मुझसे भी अधिक तीव्र वेगसे आगे बढ़ें। जो पीछे पड़े हुए हों, वे मुझ जैसोंके दृष्टान्तसे आत्मविश्वासी बनें। मुझे जो कुछ भी सफलता प्राप्त हो सकी है, उसे मैं निर्बल तथा विकारवश होनेपर भी प्रयत्न करनेसे, श्रद्धासे और ईश्वरकृपासे प्राप्त कर सका हूँ।

 
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