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पत्र : एस० आर० स्कॉटको

दूसरी धार्मिक पुस्तक, जिसमें आपकी दृढ़ आस्था हो, पढ़िए और उसमें जो-कुछ भी कहा गया है उसपर मनन कीजिए। यह सब कर चुकनेपर अपने विवाहकी बात न सोचिए और आप पायेंगे कि आप बराबर प्रगति कर रहे हैं। मेरी राय में यह कहना बिलकुल गलत है कि शुद्ध जीवन बितानेके लिए व्यक्तिका विवाह करना जरूरी है।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४१०३) की फोटो-नकलसे।

२३. पत्र : एस० आर० स्कॉटको

साबरमती आश्रम
१६ फरवरी, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला[१] आप देखेंगे कि उन वर्षों पुरानी बातों का वर्णन मैंने सिर्फ याददाश्त के सहारे ही किया है। लेकिन, मुझे वे बातें याद बहुत अच्छी तरहसे हैं। मैं यह कह सकने में बिलकुल असमर्थ हूँ कि उस समय राजकोटमें कही गई बात सच थी या नहीं और ऐसा मैंने ['आत्मकथा' के] सम्बन्धित अध्यायमें[२] भी कहा है । कहा है न? मेरी स्मृतिकी आँखें साफ देख रही हैं कि उस हाई स्कूलके नुक्कड़पर खड़ा वह धर्मोपदेशक स्कूली बच्चोंके सामने धुआंधार भाषण करता जा रहा है और हिन्दूधर्मकी निन्दा कर रहा है। लेकिन, उस धर्मोपदेशकका नाम याद कर सकना मेरे लिए असम्भव है। तो समझता हूँ कि जब मैंने उसे इस तरह भाषण करते सुना था, तब भी मैं उसका नाम नहीं जानता था।

क्या आप चाहते हैं कि आपका पत्र में 'यंग इंडिया' में प्रकाशित कर दूँ? अगर आपकी इच्छा हो तो मैं खुशी-खुशी प्रकाशित कर दूँगा।

मैं इतना और कहना चाहता हूँ कि मेरे बादके अनुभव भी उस पहले अनुभव से कुछ अच्छे नहीं रहे हैं। मैं हजारों ईसाई भारतीयों से मिला हूँ और मैंने देखा है, कि उनमें से अधिकांश नहीं तो बहुत-से लोग मांस खाते हैं और यूरोपीय वस्त्र पहनते हैं। जब भी मैंने इन चीजोंके बारेमें उनसे बातचीत की है तो उन्होंने कमसे-कम मांसाहार और यूरोपीय पोशाकको उचित साबित करनेकी कोशिश की है।

उस घटना के बाद भी मैंने बहुत-से मिशनरियोंको हिन्दू धर्म और हिन्दू देवी-देवताओंकी निन्दा करते सुना है और धर्म प्रचारक संस्थाओं के प्रकाशनों में तो इससे भी बुरी बातें पढ़ी हैं। किन्तु, साथ ही इस बातकी साक्षी भरते हुए मुझे बड़े हर्ष-

 
  1. देखिए "पत्र : एस० आर० स्कॉटको", २३-२-१९२६।
  2. देखिए भाग १, अध्याय १०; जो यंग इंडिया ११-२-१९२६ में "धर्मकी झांकी" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।