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आजकी चर्चाका विषय

प्रतिदिन अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है कि संघ-सरकार उस कानूनको नरम बनाने के बजाय सम्भव हो तो, और कड़ा बनानेका इरादा रखती है। खण्ड १० में संशोधन करनेकी जो तजवीज है, उससे वास्तवमें राहत कुछ नहीं मिलती, और उस विधेयक में केपको शामिल करनेकी बातको लेकर कुछ दक्षिण आफ्रिकी अखबार भी विधेयकके खिलाफ हो गये हैं। एक अखबारने तो यहाँतक आरोप लगाया है कि शायद भारतमें डॉ० अब्दुर्रहमानकी कारगुजारियोंसे जल-भुनकर ही दक्षिण आफ्रिकाकी सरकार विधेयककी व्याप्ति में केपको भी शामिल करनेका प्रयत्न कर रही है। हमें तो यही आशा करनी चाहिए कि सरकार और चाहे जो कुछ करनेकी दोषी हो, लेकिन उसपर जिस क्षुद्रताका आरोप लगाया गया है, उस क्षुद्रताकी दोषी वह नहीं है। मगर चाहे जो हो, सरकारके इरादे साफ हैं। सरकार की नीति भारतीय प्रवा- सियोंका मूलोच्छेद कर देनेकी है, और उन्हें इसी सरकारी नीतिका सामना करना है, उसके खिलाफ लड़ना है। अगर उनके पीछे साम्राज्य सरकार तथा भारतसरकारका प्रबल समर्थन हो तो वे यह लड़ाई सफलतापूर्वक चला सकते हैं, मगर यह समर्थन उन्हें मिलनेवाला नहीं है। भारत सरकार साम्राज्य सरकारकी प्रतिच्छविमात्र है और वर्तमान संघ-सरकार साम्राज्य सरकारसे न तो डरती है और न उसका कोई आदर करती है; इसके विपरीत, साम्राज्य सरकार ही संघ-सरकारसे डरती है। उसे डर यह है कि कहीं दक्षिण आफ्रिकी संघ साम्राज्यीय साझेदारीसे अलग न हो जाये। यह तो वैसा ही हुआ जैसे कुत्ता पूँछको नहीं, बल्कि पूँछ ही कुत्तेको चलाये। साम्राज्य सरकारको जबतक भारतको खो देनेका भय नहीं होगा तबतक वह दक्षिण आफ्रिका विरुद्ध अपनी सत्ता और अधिकारका प्रयोग नहीं करेगी। आज ऐसा दिखता है, जैसे असहयोग विफल हो गया। इससे साम्राज्य सरकारके मनमें इस विषय में एक नई आशा बंध गई है कि भारत असहाय है । इसलिए जब ठीक मौका आयेगा और भारत में कोई अप्रत्याशित स्थिति न उत्पन्न हो गई तो निश्चित है कि सत्ताका जोर दक्षिण आफ्रिका पक्षमें डाला जायेगा । इस प्रकार, अगर यह विधेयक वर्तमान सत्र में स्थगित भी हो जाये तो भी इतना निश्चित है कि अन्तमें वह पास होकर रहेगा।

फिर हमारे दक्षिण आफ्रिकावासी देशभाई क्या करें? दुनियामें अपनी सहायता आप करने जैसी अच्छी कोई और चीज नहीं है। जो अपनी सहायता आप करते हैं, उन्हीं की सहायता दुनिया भी करती है। इस प्रसंगमें बल्कि शायद सभी प्रसंगों में, अपनी सहायता आप करनेका मतलब स्वेच्छासे कष्ट उठाना है, और ऐसे कष्ट सहनका मतलब सत्याग्रह है। जब उनके सम्मानपर बन आई हो, जब कोई उनसे उनके अधिकार छीन रहा हो, जब उनकी आजीविकाको कोई खतरा हो, उस समय उन्हें सत्याग्रह करनेका अधिकार है और यह उनका कर्त्तव्य हो जाता है। उन्होंने १९०७ और १९१४ में सत्याग्रह किया और जब ऐसा किया तो उन्हें भारत सरकारका भी समर्थन प्राप्त हुआ, बल्कि सच तो यह है कि यूरोपीयों और दक्षिण आफ्रिकाकी सरकारने भी उन्हें सराहा। अगर उनमें सामूहिक हित के लिए कष्ट सहनेकी इच्छा और उत्साह हो तो वे फिर वैसा कर सकते हैं।