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३२. जेल या "अस्पताल"?

अभी हालमें लॉर्ड लिटनने कलकत्ता रोटरी क्लबके सदस्योंके सामने जेलोंके विषयमें बोलते हुए कहा कि जिस प्रकार हम शरीरसे अस्वस्थ लोगोंको जेलोंमें नहीं, बल्कि अस्पतालों में भेज देते हैं, उसी प्रकार मानसिक रूपसे अस्वस्थ, अर्थात् अपराधी वृत्तिवाले लोगोंके लिए हमें "नैतिक चिकित्सकों और नैतिक अस्पतालोंकी व्यवस्था" करनी चाहिए। परमश्रेष्ठने विषयको इस प्रकार प्रस्तुत किया:

अपने सामने मैं जो आदर्श रखना चाहता हूँ वह, अगर बिलकुल संक्षेपमें और सरलतम शब्दोंमें कहूँ तो, केवल यह है—हमारी दण्ड संहिताका आधार प्रतिशोध न हो, बल्कि उसके स्थानपर सुधार हो। सजा देनेसे भयकी भावना उत्पन्न की जा सकती है, जबर्दस्ती किसीमें कोई आदत डाली जा सकती है, लेकिन यह मनुष्यको नेक नहीं बना सकती। इसलिए नैतिक सुधारके साधनके रूप में सजा निरर्थक ही नहीं, उससे भी बदतर है। अतः, सजा देनेका चलन बिलकुल खत्म कर देना चाहिए। दण्ड जुर्मानेके बलपर जबर्दस्ती थोपी गई नैतिकता झूठी है और जो लोग एक नैतिक मान स्थापित करना चाहते हैं, उन्हें किसी और तरीकेसे काम लेना चाहिए।

सजाके लाभों और उसकी सीमाओंके विषयमें लॉर्ड लिटनने कहा :

अगर सजाके तरीकेका सहारा लिया भी जाये तो उसका उद्देश्य व्यक्तिके कल्याणके लिए आवश्यक आदतें डालना अथवा समाजके कल्याण के लिए आवश्यक अनुशासन उत्पन्न करना होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि सजा अपने इस प्रयोजनमें बराबर सफल ही होगी; मेरे कहनेका मतलब यह है कि प्रसंग-विशेषमें कोई सजा, अपना प्रयोजन सिद्ध करनेकी दृष्टिसे उपयुक्त या अनुपयुक्त हो सकती है। फिर में यह भी नहीं कहता कि इस उद्देश्यको प्राप्त करनेका एकमात्र तरीका सजा ही है। मेरा कहना तो यह है कि सजाके तरीकेसे केवल इन्हीं उद्देश्योंकी पूर्ति हो सकती है। जोर-जबर्दस्तीसे जो एक उद्देय सिद्ध नहीं हो सकता, वह है मनुष्यको नेक या नैतिक आचरण करनेवाला बनाना। इसलिए जिन सजाओंका उद्देश्य मानव-स्वभावकी दुर्बलताओं को दूर करना या नेकी सिखाना है, वे सबको-सब नितान्त कपटपूर्ण हैं। जिस प्रकार स्वास्थ्य शरीरकी एक दशा है उसी प्रकार नेकी भी मनकी एक अवस्था है और जिस तरह सजासे शारीरिक दोषोंको नहीं सुधारा जा सकता है उसी तरह चारित्रिक दोषोंको भी नहीं सुधारा जा सकता। किसी संक्रामक रोगसे पीड़ित व्यक्तिको जबरन सबसे अलग करके रखना किसी समाजके