पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

३८. पत्र : विनोबा भावेको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार, १९ फरवरी, १९२६

भाई विनोबा

यदि तुम भी बीमार पड़ जाते हो तो अब दूसरोंको दोष कैसे दे सकते हैं? अब तो मेरे लिए भी अपनेको दोषी मानना जरूरी नहीं। जो जन्मसे ब्रह्मचारी है, अगर उसे बीमार पड़नेका अधिकार हो तो मुझ-जैसे मनुष्यको तो, जिसने पके हुए घड़ेको चाकपर चढ़ानेका प्रयत्न किया है, इसका कितना अधिक अधिकार होना चाहिए? लेकिन हम दोनोंको यह अधिकार छोड़ना होगा। ब्रह्मचारी तो वही है जिसका शरीर वज्रका होगा। रोग मात्र किसी-न-किसी विकारका ही चिह्न है न? आशा है, अब तुम बिलकुल ठीक हो गये होगे।

मामाके आश्रम के बारेमें लिखना। जैसा कि तुम कह गये थे, तुम्हारा प्रतिदिन १६० गज सूत लिख दिया जाता है। और यद्यपि पुरुषोत्तमको लिखे तुम्हारे पत्रके अनुसार उसमें सुधार होना चाहिए फिर भी तुम्हारी औसत तो १६० गज ही आयेगी। इसलिए छोटे-छोटे सुधार करके बही खराब करनेकी इच्छा नहीं होती।

जमनालाल आज यहाँ आये हैं। काकाको भी शायद कल अथवा रविवारको आ ही जाना चाहिए। स्वामी निषेधाज्ञा भिजवानेकी धमकी दे गये थे। यदि यह आज्ञा भेज दी गई होगी तो काका नहीं आयेंगे। चार बजेकी प्रार्थनामें आजकल बालकृष्ण 'ईशोपनिषद्' सुना रहा है। अवधि पूरी होनेपर तुम भी आ जाना।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२१८२) की फोटो नकलसे।

३९. पत्र : शार्दूलसिंह कवीसरको[१]

साबरमती आश्रम
२० फरवरी, १९२६

प्रिय मित्र,

पिछले दिनों जो डाक जमा हो गई थी, उनका जवाब देनेका समय मुझे अब जाकर मिला है।

जैसा कि आपने देखा है गुरुद्वारेवाले मामलेमें जिन कैदियोंपर मुकदमा चल रहा है, उनमें से कुछ एकके रिहा कर दिये जानेके सम्बन्धमें मैंने कुछ नहीं कहा है। मैं

 
  1. साधन-सूत्र में पत्र पानेवालेका नाम नहीं लिखा है। लेकिन देखिए "पत्रः शार्दूलसिंह कवीसरको", २६-११-१९२५ खण्ड २९।