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पत्र : जीवनलालको

जानता हूँ कि कुछ कहना जोखिमका काम था, क्योंकि इसकी तहमें क्या है, इसकी जानकारी मुझे नहीं है।

अपने २७ जनवरीके पत्रके अन्तिम अनुच्छेद में आपने जिस पत्रका उल्लेख किया है, वह मुझे अभीतक नहीं मिला है। मैं उसकी खोज करा रहा हूँ।

मैं आशा करता हूँ कि आप उन बातोंसे मुझे अवगत कराते रहेंगे जो आपकी रायमें मुझे मालूम होनी चाहिए।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४११२) की माइक्रोफिल्म से।

४०. पत्र : जीवनलालको

साबरमती आश्रम
शनिवार, फाल्गुन सुदी ९, [२० फरवरी, १९२६][१]

भाईश्री जीवनलाल,

आपका तथा भाई रामजीभाईका लिखा सम्मिलित पत्र तथा आप दोनोंके अलग-अलग लिखे पत्र मिले। मुझे कहना चाहिए कि उनसे मुझे कुछ आघात पहुँचा है। जैसे हम अपने निजी कामको छोड़ नहीं सकते और उसे सफल बनानेके लिए प्राणपणसे जुट जाते हैं, ठीक वैसे ही हमें अपने हाथमें लिये लोकहितकारी अथवा धार्मिक कार्यके सम्बन्धमें भी करना चाहिए। इस नियम के अनुसार आप दोनोंमें से कोई भी, जिस तरह यह लिखकर कि हम अमरेली कार्यालयका उत्तरदायित्व छोड़ चुके हैं, उसे छोड़ देना चाहते हैं, उस तरह तो नहीं छोड़ सकते। आपने यह कार्य स्वेच्छासे हाथमें लिया है और यदि आप इससे मुक्त होना चाहते हैं तो दूसरी तरहसे उसकी अच्छी व्यवस्था करके ही मुक्त हो सकते हैं। आप दोनोंकी दिक्कतको में समझ सकता हूँ। मैं आपको एक पत्र तो आपका पत्र आने से पहले ही लिख चुका हूँ। मैंने उसमें जो कुछ लिखा है, उसपर में अब भी कायम रहना चाहता हूँ । इस कार्यालयकी जिम्मेदारी परिषद् अथवा चरखा संघ अथवा खादी-मण्डलकी होगी। अभी तो मैंने ही इस जोखिमको उठा लिया है और आश्रमसे रुपया दे दिया है। लेकिन आपको यह इच्छा नहीं करनी चाहिए कि कोई सार्वजनिक संस्था उसमें पड़कर उसमें लगी आपकी पूँजी आपको वापस दे दे। आप कह सकते हैं कि इस कार्यको चलानेकी जोखिम सार्वजनिक संस्थाको उठानी चाहिए और अबसे इस कार्यके लिए जो पैसा चाहिए, उसका प्रबन्ध यह संस्था स्वयं करे तथा यदि किसी समय वह कार्यालयको बन्द करना

 
  1. यह पत्र जीवनलालके जिस पत्रके उत्तरमें लिखा गया है उसपर यह टिप्पणी लिखी हुई थी: "पूज्य बापूने फाइलमें लगानेके लिए दिया, ता० २५-४-१९२६"; तारीख और वर्षका निश्चय इसोके आधारपर किया गया है।