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विधवा-विवाह

है, असत्यके दोषका दोषी है? नौ सालकी बालिका यही नहीं जानती कि विवाह क्या वस्तु है, वह यही नहीं जानती कि वैधव्य क्या चीज है। उसके विषयमें तो यही कहना होगा कि उसका विवाह ही नहीं हुआ । तब वह विधवा किस तरह मानी जा सकती है? उसके विवाहको क्रिया तो की थी उसके माता-पिताने और उन्होंने ही मान लिया हैं कि वह विधवा हो गई। इसलिए यदि वैधव्यका पुण्य किसीको मिलता हो तो कहना होगा कि वह उसके माता-पिताको ही मिलता है। पर क्या ये नौ सालकी बालिकाका बलिदान करके इस पुण्यके यशोभागी हो सकते हैं? और यदि हो भी सकते हों तो भी हमारे सामने उस बालिकाका सवाल तो ज्योंका-त्यों ही रह जाता है। मान लें कि अब वह बीस बरसकी हो गई। ज्यों-ज्यों वह समझदार होती गई, उसने अपने आसपासकी परिस्थितिसे यह जाना कि वह विधवा मानी जाती है। पर इस धर्मको तो वह नहीं समझती। यह भी हम मान लें कि बीस वर्षकी अवस्थाको पहुँचते-पहुँचते धीरे-धीरे उसमें स्वाभाविक विकार पैदा हो गये और बढ़े भी। अब उस बालाको क्या करना चाहिए? वह अपने माता-पिताके सम्मुख तो अपने मनोभावों को प्रकट कर नहीं सकती, क्योंकि उन्होंने यह संकल्प कर लिया है कि उनकी युवती लड़की विधवा है और उन्हें अब उसका विवाह नहीं करना है।

यह तो एक कल्पित दृष्टान्त है। पर भारतमें ऐसी विधवाएँ एक-दो नहीं, हजारों हैं। हम यह तो देख ही चुके हैं कि उन्हें वैधव्यका कोई पुण्य फल नहीं मिलता। ये युवतियाँ अपने विकारोंको तृप्त करनेके लिए अनेक पापोंमें फँसती हैं। इसके लिए कौन जिम्मेवार हैं? मेरे खयालसे उनके इन पापोंमें उनके माता-पिता तो अवश्य ही हिस्सेदार होते हैं। पर इससे हिन्दू धर्म कलंकित होता है, दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जाता है, और धर्मके नामपर अनीति बढ़ती जाती है। इसलिए यद्यपि इन बहन-जैसे ही विचार पहले स्वयं मेरे भी थे, पर अब विशेष अनुभवसे, मैं इस निश्चयपर पहुँचा हूँ कि जो बाल-विधवाएँ युवावस्थाको प्राप्त करनेपर पुनर्विवाह करनेकी इच्छा करें, उन्हें उसके लिए पूरी स्वतन्त्रता और प्रेरणा भी मिलनी चाहिए। इतना ही नहीं, बल्कि माता-पिताओंको चिन्तापूर्वक उचित रीतिसे इन बालाओंका विवाह कर देना चाहिए। इस समय तो पुण्यके नामपर पापका प्रचार हो रहा है।

बाल-विधवाओंका इस तरह विवाह कर देनेपर भी हिन्दूधर्म शुद्ध वैधव्यसे तो जरूर ही अलंकृत रहेगा। जिसने दाम्पत्य स्नेहका अनुभव किया है, ऐसी स्त्री यदि विधवा हो जानेपर स्वेच्छासे पुनर्विवाह न करे तो उसको संयमकी साधनाके लिए बाहरी नियन्त्रणकी आवश्यकता नहीं होगी। और दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो उसे पुनः विवाह करनेके लिए ललचा सके। उसकी स्वाधीनता तो सदा ही सुरक्षित रहेगी।

जहाँ आत्मिक विवाह ही नहीं हुआ वहाँ आत्मिक विवाहका आरोप करना अनीति है। बाल-विवाह में आत्मिक विवाहके लिए अवकाश ही नहीं। आत्मिक विवाह तो सावित्रीने किया, सीताने किया, दमयन्तीने किया। उनके विषय में हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे वैधव्य प्राप्त होनेपर पुनर्विवाह करतीं। इस प्रकारका