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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चाहने लगा हूँ कि ज्यादा से ज्यादा पैसा मिले, जिसका उपयोग में चरखा संघ या ऐसे ही अपने किसी दूसरे कामके लिए करूँ। इसमें मुझे ध्यान इतना ही रखना है कि अनुवाद ठीक-ठीक हो। इसलिए अभी मैं कोई उत्साहवर्धक उत्तर नहीं दे रहा हूँ। क्षमा करेंगी।

आपके भाईके बारेमें मुझे सब-कुछ मालूम है। सचमुच बड़ी इच्छा है कि मैं उन्हें वापस ले आऊँ। लेकिन उसके लिए खुद मुझमें कोई सामर्थ्य नहीं है, और चूँकि इस सरकारसे मैं किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता, इसलिए इसके लिए उससे कोई बातचीत भी नहीं चला सकता। मैं तो चाहता हूँ कि हम फिरसे जोरदार संघर्ष करें और इस तरह स्वराज्य प्राप्त करके अपने उन सभी देशभाइयोंको, जिन्हें मात्र स्वदेश-प्रेमके कारण विदेशोंमें रोककर रखा जा रहा है, वापस ले आयें ।

आप भारतसे रवाना होने से पहले यहाँ अवश्य आइए।

हृदयसे आपका,

श्रीमती सुहासिनी देवी

केनेडी स्ट्रीट

लुज, मायलापुर (मद्रास)

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४११७) की फोटो-नकलसे।


५३. 'हमें रुई दो !'

खादी प्रतिष्ठानके श्रीयुत सतीशचन्द्र दासगुप्तने बिहारके कुछ कताई केन्द्रोंका दौरा करनेके बाद उसका बड़ा सजीव विवरण दिया है। विवरण नीचे दिया जा रहा है ।[१] इस विवरणसे अधिकसे-अधिक स्पष्ट ढंगसे ज्ञात हो जाता है कि हमारे इस महान् देशके दीन-दुःखी लोगोंके लिए चरखा कैसा वरदान साबित हो रहा है। चरखोंसे निकलनेवाले करोड़ों धागे इन सीलन-भरी काल कोठरियोंके लिए, जिन्हें भारतमें घरकी गलत संज्ञा दी जाती है, सूर्यके प्रकाशकी तरह हैं। इस विवरणके लिए सतीशबाबूने जो शीर्षक चुना है, वह बहुत सटीक है। जब हमारे करोड़ों देशभाई "हमें रुई दो" की आवाज लगा रहे हैं, तब यह कच्चा माल मैनचेस्टरको भेजा जा रहा है। क्यों? दक्ष अँगुलियाँ ताँबेके चन्द सिक्कोंके बदले उस रुईको स्पर्श-सुखद वस्त्रका रूप देनेको तैयार हैं, लेकिन वह उन्हें मिलती नहीं। इस सुन्दर मालकी हजारों गाँठे भारतकी मूक-निरीह जनताका शोषण करनेवाले बड़े-बड़े धनपतियोंका लाभांश बढ़ाने के लिए विदेशको भेजी जा रही हैं। इसलिए हर स्वदेशप्रेमीका यह कर्त्तव्य है कि वह कमसे-कम इतना तो करे ही कि सतीशबाबूने जिन लोगोंका

 
  1. इसका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है।