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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह घोषणा इस बातका द्योतक है कि संघ-सरकारको जो कुछ करना है, उसके बारेमें वह अपना इरादा पहले ही कर चुकी है और प्रवर समितिकी नियुक्ति मात्र एक घोखेकी टट्टी है, जिसका उद्देश्य भारत सरकारके मुँहकी लाज रखना है और दुनियाको इस भ्रम में डालना है कि संघ-सरकार कोई अनुचित काम करना नहीं चाहती। इसलिए मुझे तो ऐसी कोई आशा नहीं है कि संघ सरकार द्वारा की गई इस तथाकथित रियायतसे विनाशके कगारपर खड़े प्रवासियोंको वास्तवमें कोई सन्तोष मिल सकेगा। संघ-सरकारको अपनी शक्तिका पूरा एहसास है और वह प्रवासियों के खिलाफ अपनी पूरी शक्तिका उपयोग करनेको कटिबद्ध है। साफ दीख रहा है कि भारत सरकार प्रवर समितिके निष्कर्षको स्वीकार कर लेगी और भारतीय प्रवासियोंको अपने भाग्यके भरोसे छोड़ देगी। और भारत आज जिस स्थितिमें है, उसमें तो शायद वह संघ-सरकारकी कार्रवाईके खिलाफ एकमत होकर पहलेसे भी अधिक जोरदार और तीव्र विरोध प्रकट कर देनेके अलावा और कुछ नहीं कर सकेगा। उस हालत में प्रवासी लोग खुद क्या करेंगे? इस प्रश्नका उत्तर भी सिर्फ वही दे सकते हैं।

[ अंग्रेजी से ]
यंग इंडिया, २५-२-१९२६

५५. एक विद्यार्थीके प्रश्न

एक ईसाई भारतीय, जो अब लंकामें बस गये हैं, किन्तु इस समय संयुक्त राज्य में विद्याध्ययन कर रहे हैं, लिखते हैं:[१]

... आपके कार्य-कलापोंके विषयमें यहाँकी पत्र-पत्रिकाओंमें बहुत अलग-अलग तरहके विवरण छपते हैं। इसलिए में अपनी और अपने अमेरिकी मित्रोंकी जानकारीके लिए आपसे सही ब्योरा चाहता हूँ।

वैसे तो जो प्रश्न पूछे गये हैं, उनमें से कुछके उत्तर इन पृष्ठोंमें पहले ही दिये जा चुके हैं, फिर भी उनमें आम तौरपर लोगोंको इतनी दिलचस्पी है कि उनके उत्तर दोबारा भी दिये जा सकते हैं। उनका पहला प्रश्न है:

ईसा मसीहके उपदेशोंके विषय में आपका खयाल क्या है ?

मेरे लिए इनका बड़ा नैतिक महत्त्व है, लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं 'बाइबिल' में कही एक-एक बातको ईश्वरका अन्तिम आदेश मानता हूँ। ऐसा भी नहीं मानता हूँ कि हर विषयमें उसमें जो कुछ कहा गया है, उससे आगे कुछ कहा ही नहीं जा सकता है और न यही समझता हूँ कि उसकी हर बात नैतिक दृष्टिसे ग्राह्य है। मैं ईसा मसीहको मानव जातिके सबसे बड़े धर्मगुरुओं में से मानता हूँ, लेकिन उन्हें ईश्वरका एक मात्र पुत्र नहीं मानता।" बाइबिलके बहुत-से अंश रहस्यमय हैं।

 
  1. पत्रके कुछ प्रासंगिक अंशोंका ही अनुवाद दिया जा रहा है।