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५८. पत्र : सी० श्रीनिवास रावको

साबरमती आश्रम
२५ फरवरी १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आपने मुझसे बड़ा कठिन प्रश्न पूछा है। अपनी संस्थाके लिए आपका सरकारसे मान्यता या आर्थिक सहायता देने को कहना नैतिक दृष्टिसे पाप है या नहीं, यह ऐसा सवाल है जिसे केवल आप या प्रबन्धक लोग ही तय कर सकते हैं। इस तरहके मामलों में जिसे ऐसा महसूस नहीं होता कि उसने कोई पाप किया है उसके लिए कोई पाप नहीं है। इसलिए आप जो काम करनेकी सोच रहे हैं, वह कैसा है, यह तय करनेमें किसी अन्य व्यक्तिकी रायका कोई महत्त्व नहीं है।

जहाँतक मेरी बात है, यदि मैं आपकी जगह होता तो मैं सरकारी मान्यता या मददकी याचना नहीं करता। और यदि इसपर विद्यार्थी मुझे छोड़कर चले जायें तो मैं इसका दुःख नहीं मानूंगा, क्योंकि मेरे मनको इस बातका सन्तोष रहेगा कि मान्यता देनेकी प्रार्थना न करके मैंने ठीक काम किया है। हाँ, आपका सरकारी मदद स्वीकार करना राजनैतिक भूल होगी या नहीं, इस प्रश्नपर कोई दूसरा व्यक्ति भी राय दे सकता है। कांग्रेसके प्रस्तावोंकी दृष्टिसे और आज सामान्यतया कांग्रेसजनोंकी जो मनोवृत्ति है, उसके अनुसार ऐसा करना कोई राजनीतिक भूल नहीं होगी। लेकिन एक अर्थ में यह चीज इस बातकी द्योतक होगी कि हममें पहलेसे ही जो दुर्बलता मौजूद है, उसमें वृद्धि हुई है; मेरा मतलब है, इस अर्थ में कि जो संस्था अबतक प्रतिकूल परिस्थितियोंके तूफानके आगे घुटने टेकनेसे इनकार करती रही है, वह अब लाचारी महसूस कर रही है और घुटने टेक देनेकी सोच रही है।

किन्तु कुल मिलाकर आपको मेरी रायको शुद्ध सैद्धान्तिक राय ही मानना चाहिए। इसलिए आपको अपने अन्तःकरणकी आवाजके अनुसार निर्णय करना चाहिए और यदि आप सरकारी मदद लेनेका फैसला करेंगे तो किसीको भी आपपर अँगुली उठानेका अधिकार नहीं होगा। आप जो भी मुनासिब समझें, निडर होकर करें।

हृदयसे आपका,

सी० श्रीनिवास राव

आन्ध्र जातीय कलाशाला

मसुलीपट्टम

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४११८) की फोटो नकलसे।