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५९. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको

२५ फरवरी, १९२६

इसमें कोई सन्देह नहीं कि देवदासके वहाँ न होनेसे महादेवको ज्यादा काम करना पड़ता है। लेकिन यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सुविधा होनेपर ही यदि सेवा हो तो यह सच्ची मित्रताकी परिचायक नहीं है। महादेव यदि वहाँ नहीं आ सकता तो उसे देवदासकी अनुपस्थितिसे होनेवाली असुविधाको सहन करना चाहिए। जहाँतक देवदासका सवाल है, यदि उसे वहाँ लम्बे अरसेतक रहना पड़े तो उसमें वह कुछ खोनेवाला नहीं है। सेवामें ही आत्मोन्नति निहित है।

[ गुजरातीसे ]
बापुनी प्रसादी


६०. पत्र : डाह्याभाई म० पटेलको

साबरमती आश्रम
बृहस्पतिवार, [२५ फरवरी, १९२६][१]

भाई डाह्याभाई,

नगरपालिकामें चमारके चुनावके बारेमें तुमने जो लेख भेजा था, वह मैं पढ़ गया हूँ। मुझे लगता है कि इस लेखको प्रकाशित करनेसे अन्त्यज भाइयोंको फायदा होनेके बजाय कदाचित् नुकसान ही होगा। इसलिए इसे प्रकाशित करनेका विचार छोड़ दिया है। में सबसे अच्छा उपाय यह मानता हूँ कि आप लोगोंको शान्तिसे समझा-बुझाकर धीरे-धीरे उनके विरोधको कम करें। इस बारेमें कुछ और कहना हो तो मुझे बताइए।

मोहनदासके वन्देमातरम्

श्री डाह्याभाई मनोहरदास पटेल
घोलका
गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० २६९४) से।
सौजन्य: डाह्याभाई पटेल
 
  1. डाककी मुहरसे ।