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५०३. पत्र: लालताप्रसाद शादको

२ अक्तूबर, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र और पुस्तकें मिलीं। मैं अंग्रेजी पुस्तकको पढ़कर वापस तो तुरन्त कर दूँगा, लेकिन उसे पढ़नेमें मुझे थोड़ा समय लगेगा। मेरी कठिनाई जितना आप सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा बुनियादी है। लेकिन चाहे जितनी बुनियादी होनेके बावजूद वह उतनी गम्भीर नहीं है जितनी कदाचित् आप सोचते हैं। में गुरुकी खोजमें इसलिए हूँ कि अपनी अल्पज्ञताका ज्ञान मुझे नम्र बनाये हुए हैं और गुरुकी खोज प्रत्येक ईश्वरभीरु व्यक्तिके लिए एक बुद्धिसंगत आवश्यकता है। मनोवांछित गुरु मिले या न मिले, पर उसकी खोजका यह प्रयास अपने-आपमें एक उपलब्धि है और वह अपने-आपमें सन्तोषकारक भी है। कुछ लोगोंको अपना मनोवांछित गुरु मिल भी जाता है। लेकिन अगर उन्हें इस जन्ममें गुरु न मिल पाये तो यह कोई बहुत विचारणीय बात नहीं है। खोज पूरी निष्ठा और लगनके साथ की जाये, इतना ही काफी है। मैं निष्ठापूर्वक इस बातमें विश्वास करता हूँ कि यदि प्रयासमें ईमानदारी और दृढ़ता होगी तो जब भी मुझमें गुरुकी प्राप्तिकी पात्रता आ जायेगी तब मुझे गुरुके पास नहीं जाना पड़ेगा; मेरा गुरु स्वयं मेरे पास आ जायेगा। इसलिए मैं जैसा हूँ उसीमें मुझे सन्तोष है और शास्त्र ऐसे सन्तोषका यथेष्ट समर्थन करते हैं। इसलिए यदि मैं आपके सुझावके प्रति विशेष उत्साह प्रकट न करूँ और आगरा न जा पाऊँ तो मुझे उम्मीद है, आप इसे मेरी उदासीनता न मानेंगे। लेकिन अपनी यात्राके दौरान मुझे जब कभी आगरा जानेका अवसर मिलेगा तब मैं उस संस्थाको अवश्य देखना चाहूँगा जिसका आपने वर्णन किया है। मैं चाहता हूँ आप मुझे इसके बारेमें और जानकारी भी भेजें। आगरामें जो संस्था है उसके जैसी ही एक संस्था पबनामें भी है और उसके बारेमें मैं जानता हूँ। उसके बारेमें मैंने देशबन्धुसे काफी विस्तारसे बातचीत की थी। उन्होंने उसके बारेमें निस्सन्देह बहुत उत्साह प्रकट किया था। ठाकुरमें उसकी अत्यधिक आस्था थी और उनके प्रति सम्मान भाव होनेके कारण ही में जब पबना गया तो सत्संग मठमें जाकर ठाकुर, उनकी माँ तथा मठके निवासियोंसे भी मिला था। लेकिन मुझे आपको यह बता देना चाहिए कि ठाकुरमें और उस संस्थामें मैंने जो कुछ देखा उससे मैं तनिक भी प्रभावित नहीं हुआ। और फिर उसके बाद भी मैंने संस्थाके बारेमें जो कुछ सुना है उससे मठके प्रति सम्मान पैदा नहीं होता। मुझे जो जानकारी दी गई है, हो सकता है, वह बिलकुल गलत हो। लेकिन