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मढडा आश्रम

समझनेका प्रयास किया है। उनके मित्रोंने मुझे तीखे-मीठे पत्र लिखे हैं और भाई शिवजीकी निर्दोषताका समर्थन किया है। मैंने उन सब पत्रोंको ध्यानपूर्वक पढ़ा है। लेकिन मुझे खेदके साथ यह कहना ही चाहिए कि मेरे ऊपर उन पत्रोंका प्रभाव प्रतिकूल ही हुआ है। भाई शिवजीसे जब मैं मिला था तब मैं क्रोध अथवा आवेशमें था, इसका मुझे तनिक भी स्मरण नहीं। मुझे आसानीसे क्रोध नहीं आता। भाई शिवजीने मेरे पास जो स्वीकारोक्ति की थी वह आवेशमें की थी, ऐसी छाप भी मुझपर नहीं पड़ी है। मेरी मान्यता है कि मढडा आश्रम और खानगी मिल्कियत परस्पर इतनी मिली-जुली हैं कि उसका हिसाब दिखाना भाई शिवजीका धर्म था और है। भाई शिवजीने जो गम्भीर स्वीकारोक्ति की है वह उनके चारित्र्यके प्रति सन्देह उपजानेवाली है। इसमें जो दोष आता है वह किसी भी सेवकमें नहीं होना चाहिए।

जो मनुष्य विधवाओं, युवकों और युवतियोंका आश्रम चलाता है उसका आचरण सामान्य मनुष्योंकी अपेक्षा अधिक ऊँचा होना चाहिए। उसका जीवन खानगी नहीं रह सकता। जनताको उसके समस्त जीवनको जाननेका अधिकार है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। और भाई शिवजी जनताके सेवक हैं और उन्होंने युवकों तथा युवतियों एवं विधवाओंका आश्रम चलाया है। मढडा आश्रममें अनेक प्रवृत्तियाँ चलती हैं। इसीसे मैंने भाई शिवजीके बारेमें की गई अपनी जाँचका आवश्यक अंश मात्र अत्यन्त दुःखपूर्वक, परन्तु कर्त्तव्य समझकर प्रकाशित किया है।

भाई शिवजी तथा उनके मित्रोंको इससे दुःख पहुँचेगा। मैं उनको इतना ही विश्वास दिला सकता हूँ कि उन्हें मेरे इस लेखसे जो दुःख पहुँचेगा उससे कहीं अधिक दुःख मुझे उनके व्यवहारसे हुआ और अब भी होता है। इस जगतमें मैं किसीको भी चरित्रहीन अथवा गिरा हुआ नहीं देखना चाहता। एक मनुष्यके भी पतनसे मुझे शर्म आती है। मैं एक मनुष्यके पतनमें समाजका पतन मानता हूँ। यदि यह लेख लिखे बिना काम चल सकता तो मैं अवश्य चुप हो जाता। ऐसी बातोंमें मुझे चुप रहना ज्यादा प्रिय है। लेकिन हमेशा जो प्रिय होता है, वह मनुष्यको कहाँ प्राप्त होता है?

भाई शिवजीको में अपना सच्चा मित्र मानता हूँ। मैं यह लेख लिखकर ही अपना कर्त्तव्य पूरा हुआ नहीं मानता। उन्हें मैंने बहुत समय दिया है। यदि अब भी आवश्यक लगे तो उन्हें समय देनेके लिए मैं तैयार हूँ। यदि मुझे भाई शिवजीका कोई भी मित्र मेरी भूल बतायेगा तो मैं उसका उपकार मानूँगा, अपनी भूल स्वीकार करूँगा और ऐसा करके प्रसन्नता अनुभव करूँगा।

यदि भाई शिवजी अथवा उनके कोई भी मित्र इस बारेमें उत्तरके रूपमें मुझे कुछ लिखना चाहेंगे और यदि उनके लेख मर्यादित होंगे तो मैं उन्हें पूराका-पूरा प्रकाशित करूँगा। मैं उनके मित्रोंको इतना ही बताना चाहता हूँ कि यदि एक लाख मनुष्य किसी व्यक्तिको निर्दोष मानें और एक व्यक्ति उसके दोषका प्रतिपादन कर सके तो मेरे लिए एक लाखके प्रमाणपत्र निरर्थक हैं। मुझे अबतक जो पत्र मिले