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५१३. पत्र: पुरुषोत्तम पटवर्धनको[१]

भाद्रपद बदी १४, १९८२ [५ अक्तूबर, १९२६]

भाई अप्पा,

आपका पत्र मिला। कलेंडरकी कल्पना मुझे पसन्द है। कुछ विचार ये हैं:

हाथकते सूतकी, हाथसे बुनी खादी पहनना हमारा धर्म है क्योंकि उससे हमारे लाखों-करोड़ों भाईबहनोंको जो कोई धन्धा न मिलनेसे भूखों मरते हैं, जीविका तथा भोजन मिलता है।

सूत कातना हम सबका धर्म है, क्योंकि जबतक हम सूत नहीं कातेंगे तबतक भारतके गरीबोंको सूत कातनेपर और हमपर विश्वास नहीं होगा।

यद्यदाचरति[२] आदि।

सूत कातनेसे हम उद्यमी बनेंगे और सूतकी किस्म सुधरेगी जिससे अन्तत: सूत सस्ता होगा।

हमारे खादी पहननेसे विदेशी कपड़ेका बहिष्कार होगा और उससे हममें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा, हमारी शक्ति बढ़ेगी तथा देशके कमसे-कम ६० करोड़ रुपये देशमें बचेंगे।

इनके अतिरिक्त अन्य विचार आप स्वयं बना सकेंगे।

अब्दुल्ला भाई तो स्वास्थ्य ठीक होनेपर ही आयेंगे।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९९५३) की माइक्रोफिल्मसे।

५१४. पत्र: बलदेव शर्माको

आश्रम
साबरमती
६ अक्तूबर, १९२६

प्रिय मित्र,

आश्रमके अधीक्षकको भेजा गया आपका पत्र मैंने पढ़ा है। क्या आप जानते हैं कि आश्रममें मुख्य काम तो शरीर-श्रमका ही है? क्या आप निरन्तर चरखा कातने अथवा करघेपर काम करने या सफाई, जैसे कि सड़कें साफ करना, मैलेकी

  1. अप्पा साहब पटवर्धन ।
  2. यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
    स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३-२१, गीता