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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देश जापानका भी इस लूट-खसोटमें भाग है। लेकिन यदि चीन और हिन्दुस्तान शोषित होनेसे इनकार कर दें तो इन शोषणकर्त्ता राष्ट्रोंका क्या हाल हो? अगर चीन और हिन्दुस्तान शोषित होनेसे इनकार कर दें तो उसके फलस्वरूप पाश्चात्य राष्ट्र और जापान मुसीबतमें पड़ सकते हैं, तब फिर हिन्दुस्तानके द्वारा पश्चिमकी नकलके फलस्वरूप उसकी दशा और क्या हो सकती है? निस्सन्देह पश्चिमी देशोंके उद्योगवाद और परराष्ट्र शोषणकी हद हो चुकी है। अगर ये रोगग्रस्त लोग अपने दोषोंका इलाज करनेमें असमर्थ हैं, तो भला हम नौसिखिए उनसे किस प्रकार बच सकेंगे? हकीकत यह है कि यह औद्योगिक सभ्यता खालिस दोष ही दोष है; और इसलिए एक रोग है। हमको मनोहर शब्दों और फिकरोंसे भुलावेमें नहीं पड़ जाना चाहिए। मेरा तार या जहाजसे कोई विरोध नहीं है। वे अगर उद्योगवाद तथा उससे सम्बन्ध रखनेवाली दूसरी बातोंके सहारेके बिना कायम रह सकते हों तो रहें। वे स्वयं साध्य नहीं हैं। तार और जहाजके लालचमें हमें लूट बरदाश्त नहीं करनी चाहिए। ये मानव-जातिके स्थायी कल्याणके लिए किसी भी प्रकार अनिवार्य नहीं हैं। चूँकि हम भाप और बिजलीका उपयोग जान गये हैं, इसलिए हमें उन्हें उस समुचित अवसरपर, जब हम उद्योगवादसे बचना सीख जायेंगे, इस्तेमाल करनेमें समर्थ होना चाहिए। इसलिए हमारा प्रयत्न जैसे बने वैसे उद्योगवादको समाप्त करना है।

पत्र-लेखकने अनजाने ही उपाय सुझा दिया है; क्योंकि वे स्वीकार करते हैं कि जबकि अन्य अनेक राष्ट्रोंका नाम-निशान मिट गया, भारत अबतक जीवित है; और उसका कारण यह है कि वह अपनेको परिस्थितियोंके अनुरूप ढालता रहा है। अपनेको परिस्थितियोंके अनुरूप ढालना अनुकरण करना नहीं है। उसका अर्थ है खराब बातोंको छोड़कर अच्छी बातोंको आत्मसात् कर लेना। भारत अन्य सभ्यताओंके आक्रमणोंके तूफानोंके सम्मुख इस कारण टिक सका है कि वह अपनी जगहपर दृढ़तापूर्वक खड़ा रहा। यह बात नहीं है कि उसने परिवर्तन स्वीकार न किये हों। किन्तु उसने जो परिवर्तन किये, वे उसके विकासमें सहायक ही हुए। उद्योगवादको स्वीकार करनेका अर्थ सर्वनाशको निमन्त्रित करना है। हमारी वर्तमान तबाही निस्सन्देह असह्य है। यह घोर दरिद्रता मिट ही जानी चाहिए। लेकिन उसका इलाज उद्योगवाद नहीं है। बुराई बैलगाड़ियोंका उपयोग करनेमें नहीं है। वह है हमारे स्वार्थीपन और पड़ोसियोंके प्रति हमारी अनुदारतामें। यदि हममें पड़ोसियोंके प्रति प्रेम नहीं है, तो किसी भी प्रकारकी तबदीली—वह चाहे कैसी क्रान्तिकारी क्यों न हो—हमें लाभ नहीं पहुँचा सकती। और अगर हम अपने पड़ोसियोंके प्रति, यानी भारतके निर्धनोंके प्रति, प्रेमभाव रखते हैं, तो उनकी खातिर हम वही पहनेंगे जो वे हमारे लिए तैयार करते हैं। उनकी खातिर हम, जो परिस्थितिको जानते हैं, पश्चिमसे उसके बढ़िया कपड़े खरीदने तथा उन्हें गाँव-गाँव पहुँचानेके रूपमें नीतिभ्रष्ट व्यापार न करेंगे।

अगर हम गम्भीरता एवं दृढ़तापूर्वक विचार करेंगे तो देखेंगे कि और कोई तबदीली करनेके पहले सबसे बड़ी तबदीली विलायती कपड़ेका बहिष्कार और उसके