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क्या यह जीवदया है?–१

है। दयानिधि वनवासी मुनि भी पूर्णतः हिंसामुक्त नहीं हो सकता। वह अपने प्रत्येक श्वास-प्रश्वासमें हिंसा करता है। यह देह तो हिंसाका स्थान ही है। इसीलिए सर्वथा देह-मुक्तिमें ही मोक्ष और परमानन्द निहित हैं। इसीसे मोक्षके आनन्दको छोड़कर और सभी आनन्द अस्थिर हैं, सदोष हैं।

ऐसा होनेसे हमें हिंसाके कितने ही कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं।

परन्तु यही तो आश्चर्य है, यही तो खेदकी बात है कि इस अहिंसा-प्रधान भूमिमें कुत्ते आदिका सवाल भी भयंकर रूप धारण कर सकता है। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम अज्ञानके वश होकर आज अहिंसाके नामपर हिंसा कर रहे हैं। पागल कुत्तों या उन कुत्तोंको, जिनके विषयमें यह भय है कि वे पागल कुत्तोंके संसर्गमें आ सकते हैं, मारनेमें पाप भले ही हो, लेकिन उनके अस्तित्वकी वास्तविक जवाबदेही हमारी और हमारे पंचोंकी है। पंच लोगोंको चाहिए कि आवारा कुत्तोंको यों ही नहीं भटकने दिया जाये। लावारिस कुत्तोंको खानेको देना पाप है, इसे पाप माना जाना चाहिए। यदि हम इन लावारिस कुत्तोंको मारनेका कानून बनायें तो उससे हजारों कुत्तोंकी जान बचा सकेंगे। यदि आवारा कुत्तोंको रोटी डालनेवाले जुर्माना देना स्वीकार करें तो भी आवारा कुत्तोंका उपद्रव मिट जायेगा।

जीवदया आत्माका एक महान् गुण है। थोड़ी चींटियों या थोड़ी मछलियों या थोड़े कुत्तोंको बचाने में ही उसकी इतिश्री नहीं हो जाती; बल्कि उसमें पापतक होता है। मेरे यहाँ चींटियोंका उपद्रव है। उन चींटियोंके छिद्रोंपर आटा डालनेवाला व्यक्ति आटा डालकर पाप करेगा। चींटीको तो ईश्वर कण देगा। किन्तु उस व्यक्तिके आटा छींटनेसे मुझे और मेरे कुटुम्बको हानि पहुँच सकती है। कोई पंच-संघ कुत्तों को पिंजड़ेमें बन्द करके मेरे खेतके पास छोड़कर स्वयं भले ही सुरक्षित हो जाये, किन्तु इस तरह कुत्तोंको बचानेका अर्थ होता है, मेरी जानको खतरेमें डालकर कुत्तोंको मारनेसे भी बहुत बड़े पापको मोल लेना।

जीवदयामें विचार, विवेक, उदारता, अभय, नम्रता और शुद्ध ज्ञानकी जरूरत है।

इस हिंसामय जगतमें अहिंसा रूपी तीखी तलवारकी धारपर चलना सहज काम नहीं है। यह धनसे सम्भव नहीं। क्रोध तो अहिंसाका वैरी है और अभिमान है उसे खा जानेवाला राक्षस। इस धर्मके पालनमें कितनी बार हिंसा, अहिंसा-सी जान पड़ती है।

इस जगतमें जो वस्तु जैसी दिखलायी पड़ती है, उसका स्वरूप वैसा ही नहीं होता और जिसका जैसा स्वरूप होता है, वह वस्तु वैसी ही दिखलाई नहीं पड़ती अथवा यदि कोई उसे यथार्थ रूपमें देख सकता है तो करोड़ों वर्षोंकी तपश्चर्याके बाद अन्तमें देख सकता और अनुभव कर सकता है। उसे बता तो कोई नहीं सका है और बता सकता भी नहीं।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १०-१०-१९२६